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Pushtimarg :: Theory Of Shudhadwait | Shrinathji Temple, Nathdwara
 

वल्लभ संप्रदाय का दार्शनिक सिद्धान्त शुद्धाद्वैत कहलाता है। इस सिद्धान्त के प्रर्वतक आचार्य विष्णु स्वामी थे। वल्लभाचार्य ने उसी को विकसित और व्यवस्थित कर परिष्कृत किया। इस सिद्धान्त के नाम में 'अद्वैत' के साथ शुद्ध शब्द इसलिए जोड़ा गया है, ताकि इसे सर्व श्री शंकराचार्य और रामानुजाचार्याजी के सिद्धान्तों से पृथक समझा जा सके। वल्लभाचार्य ने पूर्वावत आचार्यो के मत के विरूद्ध ब्रह्म के शुद्ध स्वरूप का प्रतिपादन किया है। इसलिए उनका सिद्धान्त शुद्धाद्वैत कहलाता है।

वल्लभाचार्य जी कृत ब्रह्मसूत्र का अणुभाष्य शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धान्त का प्रमुख उपजीव्य ग्रन्थ है।

शुद्धाद्वैत का जो अद्वैत है वह ब्रह्म का स्वरूप निहित है। ब्रह्म को दोष रहित सर्वगुण सम्पन्न स्वतंत्र जड़ शरीर के गुणों से रहित कर, पाद, मुख तथा उदर इत्यादि अवयवों से आनन्द स्वरूप और त्रिविधभेंद रहित माना है। इसकी पुष्टि आपने अपने ग्रन्थ तत्वार्थदीप निबन्ध के शास्त्रार्थ प्रकरण में की है।

आचार्य श्री ने भगवान् श्रीकृष्ण को सर्वोपरि, सत्ताधारी, व्यापक और अनन्त पूर्ति सद् चित आनन्द स्वरूप, सर्वज्ञ प्राकृत गुण रहित, सर्व प्रापंचिक गुण पदार्थों से और धर्मो से विलक्षण माना है तथा विरूद्ध धर्मो का आश्रय और युक्ति के लिए अगम्य गाहक कहा है।

अविर्भाव और तिरोभाव ब्रह्म की शक्ति है।

वही ब्रह्म जगत का कर्त्ता होते हुए भी सगुण नहीं है। त्रिगुण (सत्, रज, तम) से युक्त जिन देवताओं को गुण युक्त कहा गया है ये देवता सगुण है किन्तु वो कर्त्ता है वह तंत्र स्वतंत्र है वही ब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण है वेद (युक्ति) ब्रह्मसूत्र, भगव गीता, स्मृति पुराण आदि से प्रमाणित माना गया है।

वेद के पूर्व काण्ड में (क्रिया, शक्ति, विशिष्ट) यज्ञ रूप हरि का वर्णन किया गया है और अवतारी श्रीकृष्ण का भागवत में निरूपण है वही ब्रह्म पंचरूपात्मक द्वाद्वश स्वरूपात्मक दश रूप तथा शत् सस्त्र असंख्यविधि रूप वाला अनन्त उपमा युक्त है।

वही ब्रह्म स्वयं सृष्टि कर्ता है स्वयं सृष्टि बनाता है। विश्वात्मारूप में रक्षा करता है सबकी रक्षा करता है।

श्री वल्लभाचार्य का कथन है, परब्रह्म कृष्ण ही सत्, चित और आनंद रूप में सर्वत्र व्याप्त है वही ब्रह्म, विष्णु और शिव रूप से जगत् स्थिति और प्रलय आदि समस्त कार्यो को सम्पन्न करते है।

शुद्धाद्वैत सिद्धान्तानुसार परब्रह्म कृष्ण सर्व धर्मो के आश्रय रूप है। (१) शास्त्रार्थ प्रकरण - ११, १३, ४४ या रूपो हरिः पूर्व काण्डे ब्रह्मतनुः परे। अवतारी हरिः कृष्ण श्री भगवान् ईर्यते॥ १ ॥ भजनं सर्व रूपेषहु फल सिद्धयैतथापि तु। आदिमूर्तिः कृष्ण एवं सेवयः सायुज्य काम्यया॥ १३ ॥

जीव शुद्धाद्वैत सिद्धान्त में जीव को ब्रह्म का चिदंश कहा गया है। आचार्य श्री ने अग्नि के विस्फुलिंगो (चिनगकारियों) की तरह ब्रह्म मे से जीवों की उत्पति बतलाई है। जिस प्रकार अग्नि और चिनगारी में भेद नही उसी प्रकार ब्रह्म और जीव में अन्तर नहीं है। फिर भी जीव ब्रह्म नही है, क्योकि ब्रह्म अंशी है और जीव केवल उसका अंश मात्र है।

 

जीव और ब्रह्म में यह अन्तर है कि जीव की शक्ति अपनी सत्ता के अनुसार सीमित है, जबकि ब्रह्म की शक्तियाँ अनंत है। आचार्य श्री ने जीव की तीन अवस्थाएँ (शुद्ध, संसारी, और मुक्त) मानी है। शुद्धावस्था में जीवों में आनंदात्मक भगवदैश्वर्यादि धर्मो की स्थिति रहती है, अतः उस अवस्था में जीव ब्रह्म रूप होता है। जब अविधा से जीव का माया से संबंध होता है। तब उसमें ऐश्वर्यवादी भगवत् धर्म तिरोहित हो जाते है। उस समय मैं और मेरे की मिथ्या कल्पना करता हुआ जीव सांसारिक मोह ममता में फंसकर अपने स्वरूप को भूल जाता है। वह जीव की संसारी अवस्था होती है, और उस समय वह अपने को दीन, हीन एवं पराधीन मानकर अनेक कष्ट उठाता है। पुनः भगवत् अनुग्रह से जब जीव भगवान् की शरण में जाता है तब माया के भ्रम जाल से उसकी मुक्ति हो जाती है और वह अपने मूल स्वरूप में लौट आता हैं ।

 

जगत् शुद्धाद्वैत सिद्धान्त के अनुसार जगत् परब्रह्म का भौतिक स्वरूप है। अचार्य श्री ने जगत् को सत्य माना है। जगत के सत्यत्त्व को बतलाते हुए श्री कृष्ण ने गीता में कहा है- ''नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः'' छन्दोग्योपनिषद में लिखा है- ''सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति'' अर्थात् दृश्यमान जगत् ब्रह्मरूप है क्योंकि जगत् ब्रह्म से उत्पन्न होता है। यह जगत सनातन ब्रह्मरूप है यह उपनिषद में श्वेतकेतु के उपाख्यान में कही है। वहां उद्दालक ऋषि कहते है - सन्मूलाः सौम्येमाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः। तत्सत्यं यदिदं किं च तत्सत्यामित्याचाक्षते।। ब्रह्म सत्य है तो जगत् भी सत्य है तभी तो जगत् में आये वेद, गुरू और उनके वाक्यों को भी सत्य मानना पडेगा। यदि जगत् असत्य है तो जगत् स्थित समस्त पदार्थ वेद शास्त्रादि भी मिथ्या हुए। जिस प्रकार माटी के पिण्ड को जान लेने पर मिट्टी के पदार्थ का ज्ञान हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्म को जान लेने से ब्रह्म से उत्पन्न हुए सर्व कार्य रूप जगत को जाना जा सकता है। जगत् ब्रह्म से अलग नही है इसी को बतलाते हुए ब्रह्मसूत्र में भी कहा है कि - 'तदनन्यत्वमारं भणशब्दादिभ्यः' । जगत् को असत्य मानना आसुरीसपंत वालो का कर्त्तव्य है। श्रीमद्भगवत् गीता में भगवान ने स्पष्ट कहा है - ‘असत्य प्रतिष्ठ ते जगदाहुनीश्वरम्’ । (१) श्री वल्लभाचार्य और उनके सिद्धान्त २०, १७९ देवर्षि भट्ट श्री रमानाथ शास्त्रीतनुज भट्ट श्री ब्रजनाथ शर्मा (२) श्री वल्लभाचार्य और उनके सिद्धान्त १८४ देवर्षि भट्ट श्री रमानाथ शास्त्रीतनुज भट्ट श्री ब्रजनाथ शर्मा जगत् को सत्य मानना विचारशीलों का मन्तव्य नहीं है। जगत ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है इस विषय में मुण्ड कोपिनिषद में कहा है- यथोर्णनाभिः सृजते गृहणते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति। यथा सतः पुरूषात केशलोमानि तथाक्षरात्संभवतीह विश्वम्॥ १ ॥ जगत् और संसार का यह भेद शुद्धाद्वैत सिद्धान्त की विशेषता है।

माया शुद्धाद्वैत सिद्धान्तानुसार माया परब्रह्म की स्वरूपा शक्ति है, अतः आत्ममाया कहा गया है। जिस प्रकार अग्नि से उसकी दाहक शक्ति और सूर्य से उसका प्रकाश भिन्न नही, उसी प्रकार पर ब्रह्म से आत्ममाया भी भिन्न नहीं है। माया ब्रह्म के अधीन है इसलिए ब्रह्म के सत्य स्वरूप को माया कभी आच्छादित नहीं कर सकती है।

श्री वल्लभाचार्यजी ने भागवत् की सुबोधिनी टीका में माया के दो रूप बतलाये है पहला व्यामोहिका यानि चरणों की दासी। अतः भगवान के पास जाने में लज्जा अनुभव करती है। दूसरा रूप करण है इससे भगवान् की जगत् की उत्पति करने की इच्छा से जगत का अर्विभाव करते है तब उनका प्रथम कार्य आत्मा माया का प्रकाश करना होता है। वल्लभाचार्य ने शंकराचार्य की भांति माया को सत् असत् विलक्षण तथा अनिर्वचनीय नही माना ''रामानुज और मध्व जैसे प्रसिद्ध आचार्यो के मत विरूद्ध ब्रह्म में अद्वैत पक्ष का समर्थन किया, किन्तु माया के सम्बंध में शुद्ध ब्रह्म का प्रतिपादन करने के कारण उनका सिद्धान्त शुद्धाद्वैत कहलाता है। (१) श्रीमद् वल्लभाचार्य और उनके सिद्धान्त ५० १८४ (२) अष्टछप प्रभुदयाल मीत्तल ५० ५२