Attention! Please enable Javascript else website won't work as expected !!

Pushtimarg :: Pushtimargiya Sewa Shringar Bhog Or Raag | Shrinathji Temple, Nathdwara
 

श्रीमद् वल्लभाचार्य के जी द्वितीय पुत्र गुसाईंजी श्री विट्ठलनाथजी ने सांप्रदायिक उत्तरदायित्व संभालते ही सबसे पहले पुष्टिमार्गीय सेवा के विस्तार का आयोजन किया था। उसके लिए उन्होंने श्री गोवर्द्धन धरण प्रभु श्रीनाथजी के नित्योत्सव और वर्षोत्सव की सेवा विधियों को अत्यन्त भव्य, गंभीर और कलात्मक रूप से प्रचलित किया। इनके सम्बंध में जो क्रम निर्धारित किया था, वही क्रम अभी तक पुष्टि संप्रदाय के मंदिरों में प्रचलित है। नित्योत्सव और वर्षोत्सव की सेवा विधियों के तीन प्रमुख अंग है- श्रृंगार, भोग, राग।

श्रृंगार :- ठाकुर जी के वस्त्राभूषण और उनकी साज - सज्जा को श्रृंगार कहते हैं। महाप्रभु श्री वल्लभाचार्यजी के समय में श्रीनाथजी के श्रृंगार के केवल दो उपकरण ''पाग'' और ''मुकुट'' थे। गुसाईंजी श्री विट्ठलनाथजी ने उनका विस्तार दो स्थान पर आठ उपकरण प्रचलित किये थे। (१) मुकुट (२) सेहरा (३) टिपारा (४) कुल्हे (५) पाग (६) दुमाला (७) फेंटा और ग्वाल पगा वे उपकरण ठाकुर जी के श्री मस्तक के श्रृंगार है। इनके साथ ही श्री ठाकुर जी और श्री स्वामिनीजी के मस्तक, मुख, कंठ, हस्त, कटि, और चरणारविंद के अनेक श्रृंगार किये जाते हैं। इनमें बहुसंक्ष्यक आभूषणों का श्रृंगार धराते समय उपयोग किया जाता है।

श्री ठाकुर जी और स्वामिनीजी के आभूषणों के साथ उनके विविध भांति के वस्त्रों की भी व्यवस्था की गई जो ऋतुओं के अनुसार बदलती रहती है। जैसे शीतकाल में भारी, मोटे वस्त्र तथा रूई के गद्ल आदि होते हैं और उष्णकाल में हलके, पतले तथा भीने वस्त्रादि। इन वस्त्राभूषणों को किस प्रकार धराया जाता हैं, इनका एक सुनियोजित क्रम का निश्चित विधान है। पूरे वर्ष के प्रतिदिन के श्रृंगार की प्रणालिका निर्धारित है। उसी के अनुसार तिथि, मिति, उत्सव, महोत्सव के अनुसार श्रृंगार धराये जाते हैं। श्रृंगार के साथ मन्दिर की साज सज्जा के पर्दे (टेर), पिछवाई, खंडपाठ चौकी, पीठिका आदि का भी आवश्यक प्रबंध किया गया है। इन साज सज्जा में भी ऋतुओं के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार सुन्दर वस्त्राभूषण और रंग-बिरंगी साज-सज्जा से ठाकुरजी के राजश्री झांकियों का आनन्द प्राप्त कर वैष्णव भगवत्गण इन संप्रदाय की ओर सदा ही आकर्षित होते रहे हैं। श्रृंगार के विस्तार में इस सम्प्रदाय के कईं महत्त्वपूर्ण कलाओं की उन्नति में बड़ा योग दिया है। अपने प्रभु के प्रिप्यर्थ नवरत्नों के आभूषणों को धराया जाता है। श्री गोवर्द्धनधरण श्रीनाथजी के श्रृंगार में आभूषणों में हीरा, पन्ना, मोती, माणक, कुन्दर, सोने के आभूषणों की शोभा अपरम्पार है। सुन्दर से सुन्दर, उत्तम से उत्तम प्रकार के आभूषणों को धरा कर ठाकुर जी के दर्शन से भक्तजन आनन्दित हो जाते हैं। लगता है वही साक्षात् यशोदानंदन है, श्री कृष्णगोपाल है, यही ब्रज है, यही नंदालय है।

भोगः- खान पानादि के विविध पदार्थो को सुन्दर और शुद्ध रूप से प्रस्तुत कर उन्हे श्रीठाकुरजी को अर्पित समर्पित करने को भोग कहते हैं। समर्पित भोग प्रसाद कहलाता है। श्री वल्लभाचार्य जी के समय सखड़ी, अनसखड़ी और दूध की कतिपय सामग्री तथा फल मेवा का भोग धराया जाता था। श्री विट्ठलनाथजी ने भोग का भी बड़ा विस्तार किया था। उन्होंने पचासों भोज्य सामग्रियों को ठाकुरजी की सेवा में विनियोग कर एक ऐसी समुन्तत पाक-कला को जन्म दिया जो इस संप्रदाय की उल्लेखनीय विशेषता रही है। पुष्टि संप्रदाय की पाक कला का पूरा वैभव कुण्डवाड़ा। अन्नकूट और सबसे बढकर छप्पनभोग की झांकियों में दिखलाई पड़ता है। यदि गुसाईंजी श्री विट्ठलनाथजी उनकी व्यवस्था न करते, तो आज सैंकडों प्रकार की भोज्य सामग्रियों के बनाने की विधि ही लुप्त हो गई होती। अन्नकूट का प्रचलन तो श्री वल्लभाचार्य के समय मे ही हो गया था, यद्यपि उसका बहुत छोटा रूप था किन्तु बड़े अन्नकूट और छप्पन भोग बाद में श्री गुसाईंजी ने प्रचलित किये थे। छप्पनभोग में षट्ऋतुओं के सभी मनोरथ करने आवश्यक होते हैं । इसलिए उसे वृहत् रूप में सम्पन्न किया जाता है। सांप्रदायिक उल्लेखों के अनुसार श्री गुसाईंजी श्री विट्ठलनाथजी ने सं. १६१५ में श्रीनाथजी का प्रथम छप्पनभोग करने पश्था प्रचलित की। सं. १६४० में श्री विट्ठलनाथजी ने गोकुल में वृहत् छप्पनभोग किया था। जिसमें गोकुल गोपालपुर के सभी सेव्य स्वरूप (नवनिधि)उ पधराये गये थे। (वार्ता साहित्य एक वृहत् अध्ययन पृष्ठ-३०३) श्रृंगार और भोग की सांप्रदायिक भावना का विराट् विवेचन भी गोकुलनाथजी कथित रहस्य भावना की वार्ता में हुआ है। (वल्लभीय सुधा वर्ज ११ अंक १-२)

रागः- श्री ठाकुर जी की सेवा में राग का साधन बड़ा महत्त्वपूर्ण है। राग में गायन करने से मन शीघ्र ही एकाग्र होता है। इसलिए इसे निरोध का सार्थक माना गया है। श्रीवल्लभाचार्यजी ने निरोधमयी पुष्टिमार्गीय सेवामें राग सहित कीर्तन करने का आवश्यक विधान किया था। आचार्य श्री का कथन है - अपने सुख के लिए आनन्द स्वरूप भगवान का कीर्तन गान करना चाहिए। कीर्तन गान से जैसा सुख मिलता है वैसा सुख शुकदेवादि मुनीश्वर को आत्मानंद में भी नहीं मिलता। इसलिए सब कुछ छोड़ कर चित के निरोधार्थ सदैव प्रभु का गुण गान करना उत्तम हैं। ऐसा करने से ही सच्चिदानंदता सिद्ध होती है। (निरोध लक्ष्मण् श्लोक ४-६-९)

श्रीवल्लभाचार्य ने श्रीनाथजी की सेवा के आरम्भिक दिन से ही उनके कीर्तन गान की व्यवस्था की थी। आप श्री ने सर्वप्रथम कुंभनदास और सूरदास तथा परमानन्ददास को श्रीनाथजी का कीर्तनिया नियुक्त किया। इन कीर्तन को अनेक राग रागनियों में ताल स्वर और विविध वाद्यों के साथ अत्यन्त विकसित एवं समुन्नत रूप प्रदान करने का श्रेय श्री विट्ठलनाथजी को है। आपने श्रीनाथजी की आठों झांकियों में समय और ऋतु के रागों द्वारा ही कीर्तन करने का जो क्रम निर्धारित किया था, वह पुष्टि संप्रदाय के मन्दिरों में अभी तक यथावत् प्रचलित है। श्रीनाथजी की कीर्तन सेवा को विधि-पूर्वक और भव्य रूप सम्पन्न करने के लिए गुसाईंजी श्रीविट्ठलनाथजी ने सं. १६०२ में ही अष्टछाप की स्थापना कर दी थी। यद्यपि तब तक उन्होंने आचार्यवत्व भी ग्रहण नहीं किया था। पुष्टि संप्रदाय सेवामें राग, सेवा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानी गई है। अष्टछाप से कीर्तनकारों द्वारा जिस विशाल पद साहित्य का निर्माण हुआ, वह पुष्टि संप्रदाय की धार्मिक महत्ता सांस्कश्तिक चेतना और साहित्यक समृद्धि का सूचक है। ये आठ कवि गण - पहले श्रीनाथजी के परम भक्त थे। (ब्रजस्थ वल्लभ संप्रदाय का इतिहास - प्रभुदयाल मीत्तल)