श्री वल्लभाचार्य जी का साहित - श्री वल्लभाचार्य ने अपने दर्शनिक सिद्धान्तों के प्रतिपादन तथा पुष्टिभक्तिमार्ग के विवेचन के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की। उनके प्रमुख ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - गाययत्री भाष्य - गायत्री वेदमाता है। श्री वल्लभाचार्य ने गायत्री मंत्र पर गायत्री भाष्य नाम से संक्षिप्त भाष्य लिखा है। आपने श्रीमद् भागवत की सुबोधिनी टीका में भी गायत्री मंत्र और श्रीमद् भागवत के प्रथम श्लोक में एकात्मक भाव सिद्ध किया है। आपने स्पष्ट किया है कि वेदरूपी वृक्ष का बीज गायत्री है और उसका फल भागवत है। गायत्री भाष्य के अन्त में आपने गायत्री और रांसपचाध्यायी में सिद्धान्त की दृष्टि से समानता भी बतायी है। पूर्वमीमांसा कारिका - वेदों के तत्त्वज्ञान का परिचय देने के लिए ऋषियों ने दो मीमासाओं की रचना की है-(१) पूर्वमीमांसा और (२) उत्तरमीमांसा। पूर्वमीमांसा के आचार्य है जैमिनी। इसलिए पूर्वमीमांसा को जैमिनी मीमांसा भी कहा जाता है। इसमें वैदिक कर्मकाण्ड का विस्तारपूर्वक विवेचन हुआ है। श्री वल्लभाचार्य का मत है कि आचार्य जैमिनी साकार ब्रह्मवाद के समर्थक थे। इस ग्रंथ में कुल ४२ कारिकाएँ है। सभी धर्मो का मूल वेद है। वेद में धर्ममीमांसा है, अतः पूर्वमीमांसा धर्म-जिज्ञासा से आरंभ होती है। इसमें धर्म (कर्म या आचरण) के सभी अंगो और उपांगों का विवेचन मिलता है। श्री वल्लभाचार्य का मत है कि मनुष्य के सामने दो मार्ग है- लौकिक और वैदिक। ये दोनों ही नित्य है। लौकिक मार्ग प्रवाह रूप से नित्य है तथा वैदिक मार्ग स्वरूप से नित्य है। लौकिक मार्ग जल के समान है और वैदिक मार्ग अग्नि के समान। ये दोनो परस्पर विरोधी है। जैसे जल से अग्नि नष्ट हो जाती है, वैसे ही लौकिक दृष्टि से स्पर्श से वेदमार्ग भी नष्ट हो जाता है, लेकिन वेदमार्ग लोकमार्ग को अकस्मात् या एकदम नष्ट नहीं कर पाता। फिर भी जैसे बरतन में पानी भरा हुआ हो और उसे आग पर रख दिया जाए तो धीरे-धीरे पूरा पानी जल जाता है, उसी प्रकार वेदमार्ग भी योग्य व्यतिक्त के चित की लौकिक आसक्ति को धीरे-धीरे करके पूरी तरह नष्ट कर देता है। इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर सभी वर्गों के व्यक्तियों को अपने-अपने अधिकार के अनुसार पुरूषार्थ का अनुष्ठान करना चाहिए। तत्त्वार्थदीप निबन्ध - तत्वार्थदीप निबन्ध के तीन प्रकरण है, जो कि स्वतंत्र ग्रंथ के रूप है - (१) शास्त्रार्थ प्रकरण (२) सर्वनिर्णय प्रकरण (३) भागवतार्थ प्रकरण। इन ग्रन्थों पर स्वयं श्री वल्लभाचार्य ने प्रकाश नामक टीका भी लिखी है। शास्त्रार्थ प्रकरण - श्री वल्लभाचार्य का मत है कि समस्त शास्त्रों का अर्थ गीता रूपी भगवत्-वाक्यों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। यदि श्रीहरि के वचनों के आधार पर शास्त्रों का अर्थ किया जाए तो समस्त वेदवाक्यों, रामायण, महाभारत, पंचरात्र, ब्रह्मसूत्रों और अन्य सभी भागवत् शास्त्रों में एक ही अर्थ का प्रतिपादन मिलता है। उसी एकार्थता का प्रतिपादन करते हुए श्री वल्लाभाचार्य ने इस ग्रन्थ में शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद के सिद्धान्त की स्थापना की है। शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद को समझने के लिए शास्त्रार्थ प्रकरण एक अत्यन्त उपयोगी ग्रंथ है। सर्वनिर्णय प्रकरण- श्री वल्लभाचार्य ने शास्त्रार्थ प्रकरण ग्रन्थ में जो सिद्धान्त निर्धारित किये है, उनके सम्बंध में यदि कोई सन्देह हो तो उसका निराकरण सर्वनिर्णय प्रकरण से किया जा सकता है। श्रीवल्लभाचार्य के अनुसार वेद सर्वोपरि प्रमाण है और उनका अनुकरण करने वाले ग्रन्थ ही उनकी दृष्टि में सबल प्रमाण है। इस ग्रन्थ में ब्रह्म, जीव, जगत्, अन्तर्यामी आदि दर्शनिक तत्वों तथा कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि आध्यात्मिक साधनों और उनसे प्राप्त होने वाले फलों पर श्री वल्लभाचार्य ने अपने शास्त्र-सम्मत निष्कर्षो को व्यक्त किया है। शास्त्रार्थ प्रकरण ग्रन्थ में भगवत् शास्त्रों के प्रमाण के आधार पर दार्शनिक तत्त्वों का निर्णय प्रस्तुत किया गया है, किन्तु सर्वनिर्णय में प्रमेय रूप श्रीहरि के प्रमेय बल अर्थात् भगवत् बल का आश्रय लेकर तत्त्वों का निर्णय किया गया है। श्री वल्लभाचार्य की वैदिक धर्म, वैदिक सिद्धान्तों, वैदिक जीवन-पद्धति और वैदिक जीवन मूल्यों में अनन्य आस्था थी। आपने प्रमेय बल अर्थात् भगवत् बल को सर्वोपरि मानते हुए सनातन वैदिक धर्म के अविरोधी तथा वेद-सम्मत पुष्टि भक्तिमार्ग की संस्थापना की। आपने स्पष्ट किया कि वेदों में यज्ञ रूप भगवान् श्रीहरि का वर्णन है। वेदों में साधन और फल दोनो रूपों में श्रीहरि का ही निरूपण किया गया है। कर्मतत्त्वज्ञ श्री जैमिनी ने पूर्वमीमांसा में और सर्वज्ञ व्यासजी ने उत्तर मीमांसा में वेदार्थ को ही प्रस्तुत किया है। दोनो मीमांसाओं का सही ज्ञान होने पर ही वेदार्थ का निर्णय हो सकता है। इस समन्वित दृष्टि का जिनमें अभाव था, ऐसे लोगो ने असंदिग्ध वेदार्थ को, वेद के सुस्पष्ट निर्णय को नष्ट कर दिया है। भगवातार्थ निर्णय - श्रीमद् भगवत् ग्रन्थ तो श्री वल्लभाचार्य का सर्वस्व है। इसे आप वेदरूपी कल्पवृक्ष का सरस फल मानते हैं। गो. विट्ठलनाथजी का कथन है कि श्रीमद् भागवत अमृत का समुद्र है, जिसका मंथन करके श्री वल्लभाचार्य ने उसके गूढार्थ रूप अमूल्य रत्नों को प्रकट किया है। श्री वल्लभाचार्य भागवत को सर्वोद्धारक भगवान् श्रीकृष्ण का ही रूप मानते है। इसमे व्यासजी ने अपनी समाधि भाषा में परम तत्त्व का निरूपण एवं प्रभु की लीला की दिव्य अनुभूतियों को प्रकट किया है। इसमें श्रुतियो के सारभूत सिद्धांतों का समावेश है। श्री वल्लभाचार्य ने भागवत् के सात प्रकार के अर्थ प्रकट किये हैं। ये हैं- (१) शास्त्रार्थ-सम्पूर्ण भागवत् शास्त्र का अर्थ (२) स्कन्धार्थ - प्रत्येक स्कंध का अर्थ (३) प्रत्येक अध्याय का अर्थ (४) प्रत्येक प्रकरण का अर्थ (५) प्रत्येक श्लोक का अर्थ (६) प्रत्येक पद (शब्द) का अर्थ और (७) प्रत्येक अक्षर का अर्थ। आपका मत है कि ये सातों अर्थ परस्पर अविरोधी है तथा एक ही भाव को पुष्ट करते हैं। इनमें से आरंभ के चार अर्थ भागवतार्थ प्रकरण में दिये गये हैं और बाद वाले तीन अर्थ आपने अपनी भागवत-सुबोधिनी टीका में प्रस्तुत किये हैं। सुबोधिनी - श्री वल्लभाचार्य ने श्रीमद् भागवत पर सुबोधिनी टीका लिखी है। आपके ग्रन्थों में इसका स्थान सर्वोपरि है, क्योकि इसमें महाप्रभु श्रीवल्लभ ने भागवत् के गूढार्थ को स्पष्ट करते हुए अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है। आपने इस टीका के आरंभ में लिखा है कि मुझे परम कृपालु भगवान् ने श्रीमद् भागवत के अर्थ का विवेचन करने के लिए ही भूतल पर भेजा है। महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य इस महान् टीका को पूर्ण नहीं कर सके। आपने भागवत के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और दशम स्कन्धों की विस्तृत एवं गहन टीका लिखी हैं। एकादश स्कंध के केवल चार अध्याय की टीका हो चुकी थी, तभी भगवद्-आज्ञा का परिपालन करते हुए आपने सन्यास ले लिया और प्रभु के पास पधार गये। आपने श्रीमद् भागवत से सम्बंधित तीन ग्रन्थ और भी लिखे हैं-(१) भागवत दशम स्कंध - अनुक्रमणिका (२) पुरूषोत्तम सहस्त्रनाम और (३) त्रिविध नामावली। पत्रावलम्बन- यह भी वल्लभाचार्य का ३९ कारिकाओं (श्लोको) का गद्यपद्यात्मक लघु ग्रन्थ वास्तव में उनके ब्रह्मवाद का घोषणा पत्र है। आपने यह ग्रन्थ लिखकर काशी विश्वनाथ के मंदिर की दीवार पर लगवा दिया था, संभवतः इसी कारण इसे पत्रावलम्बन कहा जाने लगा। इसमें श्रीवल्लभाचार्य ने वेद के पूर्वकाण्ड और उत्तरकाण्ड की एकार्थकता का सुन्दर विवेचन करते हुए उद्घोषणा की है कि 'वेद और वेदान्त के अर्थ का ब्रह्मवाद में ही समावेश होता है। इस पत्र में उल्लिखित मत के विषय में यदि किसी को सन्देह हो तो वह निः संकोच निर्भय होकर मेरे पास आये। ब्रह्मसूत्र अणुभाष्य- श्री वल्लभाचार्य ने व्यासजी के ब्रह्मसूत्रों पर अणुभाष्य के नाम से विद्वत्तापूर्ण भाष्य लिखकर अपने दार्शनिक मत शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद को प्रतिष्ठापित किया। आचार्य श्री ब्रह्मसूत्र के चार अध्यायों में से तृतीय अध्याय के द्वितीय पाद के चौंतीसवें सूत्र तक ही भाष्यपूर्ण कर पाये थे। शेष अंश की पूर्ति उनके पुत्र गुसाईंजी विट्ठलनाथजी ने की थी। इस ग्रन्थ के द्वारा आपने ब्रह्मवाद, ब्रह्म के विरूद्धधर्माश्रयत्व, अधिकृत परिणामवाद आदि दार्शनिक सिंद्धान्तों की स्थापना श्रुतियों के आधार पर की है। षोडशग्रन्थ - श्री वल्लभाचार्य ने सोलह छोटे-छोटे ग्रंथों में अपने पुष्टि भक्तिमार्ग की आधारभूत मान्यताओं का परिचय दिया है। इन सोलह ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है - (१) श्रीयमुनाष्टकम् - इसमें पुष्टिरस - प्रदायिनी श्री यमुनाजी के आधिभौतिक, आध्यात्मिक एवं आधिवैदिक रूपों का तथा यमुनाजी के अष्टविध असाधारण ऐश्वर्यों का वर्णन है। श्री यमुनाजी पुष्टि जीव के प्रभु - प्राप्ति में प्रतिबन्ध करने वाले समस्त दोषों की निवृति करती है। उनकी कृपा से स्वाभाव - विजय होकर भगवान् की भक्ति तथा भगवान्-प्रेम का अधिकार प्राप्त कर जीव पुष्टिमार्ग में प्रवेश की योग्यता प्राप्त करता है। यमुनाष्टक पुष्टिमार्गीय भक्तों के लिए मंगलाचरण रूप है। यमुनाष्टक के रूप में स्वयं श्री महाप्रभुजी ने श्रीयमुनाजी की वन्दना तथा स्तुति की है। (२) बालबोध - इस ग्रन्थ में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरूषार्थों को ईश्वर विचारित और जीव - विचारित दो श्रेणियों में वर्गीकरण करके विभिन्न मोक्षमार्गों के सिद्धान्तों का संग्रह रूप में सामान्य परिचय है। इसके द्वारा अन्य मोक्ष मार्ग की सीमाएँ ज्ञात हो जाती है, जिससे यह अर्थ ग्रन्थ महाप्रभुजी के सिद्धान्तों और उनके मार्ग की ओर जाने की तीव्र उत्कण्ठा जगाता है। (३) सिद्धान्त मुक्तावली - महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने इस ग्रन्थ में भागवतजी के आधार पर स्थापित अपने सिद्धान्तों के गुप्त रहस्यों को प्रकट किया है। तद्नुसार परब्रह्म श्रीकृष्ण की सेवा ही जीव का सनातन परम कर्त्तव्य है। चित्त को प्रभु में पिरो देना, प्रभु श्रीकृष्ण के साथ तन्मय हो जाना ही सेवा है। यह मानसी सेवा ही उत्कृष्ट है, जिसकी प्राप्ति के लिए अपने तन और अपने धन को भी श्रीकृष्ण सेवा मे लगा देना चाहिए। परमानन्द की प्राप्ति तो केवल भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा से ही संभव है। जीव परमात्मा का अंश है, अतएव ब्रह्मात्मक है। अच्छी तरह समझकर केवल कृष्ण में ही अपनी बुद्धि लगानी चाहिए। अंहता - ममता की वृद्धि के कारण हमें अपनी ब्रह्मात्मकता का बोध नहीं होने पाता है। ब्रह्मात्मकता के बोध से अक्षर ब्रह्म में विराजमान पूर्ण पुरूषोत्तत परब्रह्म श्रीकृष्ण के दर्शन हो जाते है। (४) पुष्टि - प्रवाह - मर्यादा - भेद :- इस ग्रन्थ मे पुष्टि, प्रवाह और मर्यादा मार्गो तथा पुष्टि, प्रवाही और मर्यादी जीवों का विवेचन हैं। इसके अनुसार पुष्टि जीवों की सृष्टि भगवान् के श्रीअंग से भगवत्रूप की सेवा के लिए ही हुई है और उनके फल एकमात्र प्रभु ही है। यदि पुष्टि जीव से भगवत् - सेवा न निभे तो उसका अस्तित्व ही निरर्थक हो जाता है। (५) सिद्धान्तरहस्यम् - इस ग्रन्थ में महाप्रभुजी स्पष्ट करते है कि भगवान् ने स्वयं यह आज्ञा की है कि जीवों को ब्रह्मसम्बंध कराओ। इससे उनके सभी दोषों की निवृति होगी और उसके बाद हर वस्तु भगवान् को समर्पित करके प्रसाद के रूप में ही ग्रहण करने से भविष्य में दोषों की सम्भावना भी नहीं रहेगी। प्रभु को समर्पित होने से वस्तुएँ भगवदात्मक हो जाती है। वे दोषयुक्त नहीं रहती। यह श्रीवल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग का अत्यन्त गूढ़ रहस्य है। (६) नवरत्न - .इस ग्रन्थ में श्री वल्लभाचार्यजी ने बताया है कि जो जीव प्रभु को आत्मसमर्पण कर देता है, उसके मन में यह दृढ विश्वास जाग जाना चाहिए कि प्रभु सब निज - इच्छा से ही करेंगें। जो अपने प्राणों को कृष्णमय बना लेते हैं, उनके जीवन में चिन्ता का प्रवेश कैसे हो सकता है? वे हर स्थिति को प्रभु की लीला मानते हुए निरर्थक चिन्ताओं में समय न खोकर और प्रभु के प्रति तन्मयता न छोड कर निरन्तर 'श्रीकृष्णःशरणं मम' बोलते हुए जीवन जीते है। उनके जीवन में भगवत् प्रेम व्यसन बन जाता है, फलात्मक हो जाता है। (७) अन्तःकरणप्रबोध - यह ग्रन्थ हमे बताता है कि जीव भगवान् का सेवक है। उसका धर्म यह है कि वह भक्तिपूर्वक अपना र्स्वस्व प्रभु को समर्पित करके कृतार्थ , निश्चिन्त और सुखी हो जाए। सेवक अपने धर्म का पालन भर करे प्रभु तो अपनी ओर से उसका परमकल्याण करेंगें ही। प्रभु जिसे अंगीकृत कर लेते है, उसका कभी परित्याग नहीं करते। अंगीकृत जीव के समस्त दोषों की निवृति होकर उसे उत्तमता और भगवदीयता प्राप्त होती है, इसमें कोई संदेह नहीं है। उसका कभी अनिष्ट नहीं होता, उसकी लौकिक गति नहीं होती। (८) विवके - धैर्याश्रय - निरूपणम् -श्री महाप्रभुजी कहते है कि भगवत्सेवा में विवके, धैर्य और आश्रय अत्यन्त उपयोगी है। विवेक का अर्थ है - प्रभु निज - इच्छा से सब करेंगे, यह निश्चय। धैर्य का तात्पर्य है - मृत्युपर्यन्त आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदेविक त्रिविधि दुःखों को सहन करना तथा आश्रय का अर्थ है - इस लोक में और परलोक में हर स्थिति में श्रीहरि ही हमारे आश्रय - स्थल है, यह दृढ निष्ठा अशक्य का सुशक्य कैसी भी स्थिति क्यो न हो, अपने हृदय में सदैव शरण - भावना बनाये रखना चाहिए। कलियुग में अन्य सभी साधन दुःसाध्य हो गये है, तो भी भगवान् श्रीकृष्ण का आश्रय ही सदैव हितकारक है प्रभु के चरणों की शरण ही हमारा मार्ग है ।और वही हमारा कर्त्तव्य भी है, यही साधन भी है और यही साध्य भी। (९) कृष्णाश्रय स्तोत्रम- इस ग्रन्थ में बताया गया है कि कलियुग में देश, काल, द्रव्य, कर्ता, मंत्र और कर्म शुद्ध नही रहे, अतः उनसे पुरूषार्थ-सिद्धि नही हो सकती। ऐसी स्थिति में भगवान् श्रीकृष्ण ही एकमात्र आश्रय है और वे ही इस लोक तथा परलोक के साधन है। उन्ही का आश्रय लेना चाहिए। (१०) चुतःश्लोकी - इस ग्रन्थ में उपदेश है कि पुष्टिमार्गीय साधन के लिए श्रीकृष्ण का भजन अर्थात् सेवा ही धर्म है। श्रीकृष्ण स्वयं ही अर्थ रूप है। श्रीकृष्ण को सर्वात्मना हृदय में धारण करना ही सच्चा काम है और श्रीकृष्ण के चरणों को सदैव स्मरण - भजन (सेवा) और सर्वात्मना उनका बन जाना ही मोक्ष है। इस प्रकार भक्त के चारों पुरूषार्थ श्रीकृष्ण से सम्बद्ध है। (११) भक्तिवर्धिनी - यह गूढ़तत्त्व निरूपण करने वाला भगवत् - प्रेम रूपी बीजभाव त्याग, श्रवण और कीर्तन से दृढ होता है तथा भगवत् - भक्ति क्रमशः बढती हुई प्रेम, आसक्ति और व्यसन दशा को प्राप्त होती है। श्रीकृष्ण के प्रति व्यसन अवस्था प्राप्त होने पर जीव कश्तार्थ हो जाता है। भक्त के मन में यह दृढ विश्वास रहना चाहिए कि हर स्थिति में भगवान् अपने भक्त की रक्षा करेगे ही। यह सभी भगवत् - शास्त्रों का गूढतम रहस्य है। (१२) जलभेद - इस ग्रन्थ में बताया गया है कि जीवन का पर्याप्त जल आश्रय - भेद से गुण - दोष उत्पन्न करने वाला हो जाता है, उसी प्रकार भगवान् के गुण भी वक्ताओं के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रभाव करने वाले बनते है। इसलिए सदैव उत्कृष्ट भगवदीय वक्ताओं से ही भगवत् - गुण सुनना चाहिए, कृष्ट वक्ताओं से नहीं। (१३) पंचपद्यानि - इस ग्रन्थ में महाप्रभुजी ने भगवत् - गुणों के भिन्न-भिन्न स्तरों के पाँच प्रकार के श्रोताओं की चर्चा की है। (१४) सन्यास - निर्णय :- श्री महाप्रभुजी ने इस ग्रन्थ मे बताया है कि भक्ति ठीक से हो सके, इस दृष्टि को रखकर साधनावस्था में सन्यास लेना उचित नहीं है। इस अवस्था में साधक भटक सकता है। भक्ति दृढ होने के बाद भगवत्-विरह के परमानन्द में मग्न रहने की दृष्टि से सन्यास लेना ही प्रशंसनीय है। अपने घर में भगवत्सेवा और कथामय जीवन जीना उत्तम है। यदि यह संभव न हो तो व्यसन की दशा में, भक्ति की दृढ स्थिति में, सन्यास ग्रहण करना मध्यमाधिकार का द्योतक है। (१५) निरोधलक्षणम् - श्री महाप्रभुजी स्पष्ट करते है कि भगवान् के अनवतारकाल में भगवत्सेवा और भगवत्कथा के द्वारा प्रपंचविस्मृमी एवं भगवद्-आसक्ति रूप निरोध सिद्ध होता है। निरोध साधन अवस्थाकी सर्वोत्कृष्ट स्थिति है। इससे बढकर न तो कोई मंत्र है, न स्तोत्र है, न कोई विद्या है और न कोई तीर्थ है। यह सर्वोत्कृष्ट है। (१६) सेवाफलम् - पुष्टिभक्त भगवत्सेवा द्वारा किसी भी फल की कामना नही करता, फिर भी भगवद् - अनुभूति के अनेक प्रकारों में भक्त को सेवा फलरूपता की प्रतीति होती है। यह फलरूपता तीन प्रकार से होती है - (१) अलौकिक सामर्थ्य - यह जीवन्मुक्ति की स्थिति है। भूतल पर भगवत्सेवा करते - करते सभी इन्द्रियों से भगवद्-अनुभूति के रूप में जीव में जो अलौकिक सामर्थ्य प्रकट होता है, वही पुष्टिमार्गीय जीवन्मुक्ति है। (२) सायुज्य - यह भगवत्सेवा की फलात्मिक अनुभूति है। इसमें देह-गेह-संसार आदि अन्य किसी की भी स्फूर्ति न होकर निरन्तर प्रभु से ही आन्तर संयोग की प्रगाढ़ रसात्मक अनुभूति होती है। (३) वैकुण्ठादि भगवद्धाम में भगवत्सेवोपयोगी देह की प्राप्ति। भौतिक देह छूट जाने पर भक्त को भगवद्-धाम में भगवत्सेवा के लिए सेवोपयोगी नयी देह प्राप्त होती है। यह नवतनुत्व भी भगवत्सेवा में प्राप्त होने वाला फल है। यह ब्रह्मभावापत्ति है, इसमें भगवद्-सेवा के सुअवसर की प्राप्ति होती है। महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने अपने षोडश ग्रन्थों में बारम्बार दृढतापूर्वक यह सुनिश्चित सिद्धान्त दिया है कि पुष्टि जीवो के लिए अपने घर में रहकर पुष्टि पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा, ब्रजभक्तों के भावों का भावनात्मक अनुसरण करते हुए करना, अपने तन-मन-धन का भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में विनियोग करना (लगाना) और जब भगवत्सेवा का समय न हो तो उस अवसर पर भगवद्-भाव को बढाने वाली भगवत् कथा का श्रवण-मनन-कीर्तन करना, ही प्रथम और परम कर्त्तव्य है। भटकने वाले चित्त की सभी वृतियों का निरोध भगवत्-सेवा और भगवत्कथा में होना चाहिए। उपर्युक्त ग्रन्थो के अतिरिक्त महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य ने अन्य अनेक ग्रन्थों और स्तोत्रों की रचना की है जिनमें - पंचश्लोकी, शिक्षाश्लोक, त्रिविधनामावली, भगवत्पीठिका आदि ग्रन्थ तथा मधुराष्टक, परिवृढाष्टक, गिरिराजधार्याष्टक आदि स्तोत्र प्रसिद्ध है। |