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Pushtimarg :: The Great Aacharya of Pushtimarg | Shrinathji Temple, Nathdwara
 

गोस्वामी श्री गोपीनाथजी श्रीमद्वल्लभाचार्य के ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथजी का जन्म विक्रम संवत् १५७० में हुआ था। जब आप केवल सत्रह वर्ष के थे तभी महाप्रभु वल्लभाचार्यजी भगवान् के निजधाम में पधार गये थे। आपका अध्ययन शंकर-वेदान्त के महान् पण्डित एवं भक्त श्री मधुसूदन सरस्वती के शिष्य श्री माधवानन्द सरस्वती के पास हुआ। आप संप्रदाय में महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रतिनिधि के रूप में माने जाते है। आपके दो ग्रन्थ प्रसिद्ध है- १. 'साधनदीपिका' २. 'सेवाश्लोका'। इन ग्रन्थों में आपने वैष्णव साधना-पद्धति और प्रभुसेवा संबंधी महत्त्वपूर्ण निर्देश दिये है। श्री गोपीनाथजी का तिरोधान श्री जगन्नाथपुरी में, जगन्नाथजी की सन्निधि में भगवत्-भावापन्न अवस्था में संवत् १५९९ में हो गया। गोपीनाथजी ने पुष्टि संप्रदाय को व्यस्थित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

गुसाँईजी श्री विट्ठलनाथजी गोपीनाथजी के तिरोधान के कुछ समय पश्चात् ही उनके पुत्र पुरूषोत्तमजी भी भगवत्लीला में पधार गये। उनके बाद गुसाँईजी श्री विट्ठलनाथजी ने पुष्ठि संप्रदाय को पूर्ण व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। श्री विट्ठलनाथजी का प्राकट्य संवत् १५७२ (सन् १५१५ ई.) में पौष कृष्ण नवमी को हुआ था। श्री गुसाँईजी ने पुष्टिमार्ग के प्रचार-प्रसार के लिए देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवास किया। गुजरात और सौराष्ट्र की तो आपने छह बार व्यापक यात्राएँ की। गुजरात में पुष्टिमार्ग का जो व्यापक प्रचार है, उसका बहुत कुछ श्रेय भी गुसाँई जी को है। श्री गुसाँईजी का सम्मान बादशाह अकबर भी करता था। बादशाह ने आपको न्यायाधीश के अधिकार दिये थे और वह समय-समय पर गुसाँईजी की दुआ माँगने भी आता था। मुगल राजवंश पर आपका प्रभाव तीन पीढ़ियों तक रहा। बादशाह जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी समय-समय पर आपको अनेक सुविधाएँ प्रदान की थी।

श्री गुसाँईजी प्रतिदिन कम से कम एक प्राणी को दीक्षा दिया करते थे। आपने अनेक योग्य सेवकों को पुष्टिमार्ग के प्रचार-प्रसार का दायित्व सौप रखा था। श्री गुसाँईजी का संबंध विभिन्न राजा-महाराजाओं से था, किन्तु भगवान् की सेवा के लिये वे राजकीय धन स्वीकार नहीं करते थे। यदि आग्रहपूर्वक कोई राजपुरूष आपको धन दे देता तो उसे गौ-सेवा में लगा देते थे। गरीबों की पवित्र भेंट को आप बहुत महत्त्व देते थे और उनसे प्राप्त भेंट को श्रीनाथजी की सेवा में सहर्ष लगाते थे। गरीबों और दीन-दुःखियों तथा पतितजनों के प्रति उनमें विशेष करूणा भाव था। आप अपने सेवकों को भी यह समझाते थे कि वैष्णव धर्म मानवता का भूषण है। वैष्णव में मानवीय संवेदना होना नितांत आवश्यक है।

गुसाँईजी उच्चकोटि के दार्शनिक और विचारक थे। आपने महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य के अपूर्ण रह गये 'अणुभाष्य' की पूर्ति की तथा अपने 'विद्वन्मंडन' ग्रन्थ में शुद्धाद्वैतदर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। 'भक्तिहंस' ग्रन्थ में भक्ति तत्त्व का विवेचन तथा ' श्रृंगाररसमण्डन' ग्रन्थ में भगवत्-लीला का स्पष्टिकरण किया। 'विज्ञप्ति' में आत्मनिवेदन और भगवद्विरह की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। 'सर्वोत्तमस्त्रोंत' में आपने श्रीमद्वल्लभाचार्य के व्यक्तित्व और कार्यो का सम्यक निर्देश करने वाले १०८ नामों से आपकी वंदना की है। गुसाँई विट्ठलनाथजी ने महाप्रभु के चार शिष्यों कुंभनदास, सूरदास, कृष्णदास और परमानंददास तथा अपने चार शिष्यों गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास को सम्मिलित कर 'अष्टछाप' की स्थापना की तथा इन्हे ठाकुर जी के सम्मुख अलग-अलग दर्शनों के समय कीर्तन करने का दायित्त्व सौंपा।

गुसाँईजी ने भगवत् सेवामें काफी विस्तार और विविधता प्रदान की। भवत्सेवा में थोडी सी भी असावधानी को वे अक्षम्य अपराध मानते थे। भगवत्सेवा में कलात्मक साधना का समावेश किया। गुसाँईजी ने संस्कृत और ब्रज दोनों भाषाओं में उत्कृष्ठ साहित्यसृजन किया है। ब्रजभाषा को तो आप 'पुरूषोत्तम भाषा' कहते थे। आपने तत्कालीन समाज के द्रष्ठीकोण मे व्यापक परिवर्तन किया तथा भगवान् के प्रति गहरी आस्था और समर्पण भाव जगाया। 'भक्तमाल' के लेखक नाभादासजी ने आपकी महत्ता प्रकट करते हुए लिखा है - श्री वल्लभसुत बलि भजन प्रताप तें कलियुग में द्वापर कियो।श्री गुसाँईजी ने अपने सेवकों को यह प्रेरणा दी की धन-वैभव और कला आदि गुणों की सार्थकता इसी मे है कि उनका विनियोग भगवत्सेवा में किया जाए। आपने लीला-प्रवेश (भगवत्धाम-प्रस्थान) के पूर्व अपने सातों पुत्रों को बुलाकर निधि का विभाजन किया। निधि का अर्थ धन-दौलत न होकर भगवान् के सेव्यस्वरूप की सेवा का दायित्व है। सातों पुत्रो को जो सात सेव्यस्वरूप प्रदान किये गये, उसके आधार पर पुष्टिमार्ग में सात गश्ह या पीठ माने जाते है और प्रधान पीठ श्रीनाथद्वारा का है। विक्रम संवत् १६४२ माध कृष्ण सप्तमी के दिन श्री गिरिराज गोवर्धन के मुखारविन्द के निकट कंदरा में प्रवेश कर आप भगवान की लीला में प्रविष्ट हो गये। कंदरा में केवल आपका उत्तरीय ही प्राप्त हुआ। गुसाँईजी ने पुष्टिमार्ग तथा भारतीय धर्म और संस्कृति की अपूर्व सेवा की। आप भारतीय जनता के लिये 'धर्मसेतु' और 'भक्तिसेतु' थे। आपका स्मरण करते हुए 'नामरत्नाख्या स्त्रोंत' में आपको 'महापतितपावन' कहा गया है। वास्तव में श्री गुसाँईजी महामाहिमाशाली दिव्य पुरूष थे, जिन्होने भारतीय धर्म साधना को नया आयाम दिया और वैष्णव भक्ति में अभिनव चेतना जगाई।

गोस्वामी श्री गोकुलनाथजी गोस्वामी श्री विट्ठलनाथजी के चतुर्थ पुत्र गोकुलनाथजी अत्यंत प्रभावशाली और प्रतिभाशाली धर्माचार्य थे। आपने अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर पुष्टिमार्ग के प्रभाव को व्यापक बनाया। आपके जीवन की सर्वाधिक प्रसिद्ध घटना 'मालातिलक प्रसंग' है। कहा जाता है कि बादशाह जहाँगीर के राज्य में चिद्रूप नामक सन्यासी के प्रभाव में आकर एक राजकीय आदेश निकला कि कोई ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक (वैष्णवी तिलक) न करे और न तुलसी की माला गले में पहने। गोकुलनाथजी की प्रेरणा से वैष्णवों ने इस आदेश का प्रबल विरोध किया, सत्याग्रह किया और स्वयं गोकुलनाथजी, अत्यन्त वृद्ध होने पर भी बादशाह जहाँगीर से मिलने के लिये कश्मीर गये। उनसे प्रभावित होकर वैष्णवों को माला और तिलक धारण करने की पुनः राजकीय अनुमति मिली। श्री गोकुलनाथजी संस्कृत के विद्वान होने के साथ ही ब्रजभाषा के भी उत्कृष्ठ लेखक थे। आपके द्वारा लिखित 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता', 'निज वार्ता', 'बैठक चरित्र', 'वचनामृत ' आदि के द्वारा पुष्टिमार्ग के विचार और आचार को जन-जन तक पहुँचाने में अद्भुत सफलता मिली है। श्री गोकुलनाथजी ने जनमानस में पुष्टिमार्गीय सिद्धान्तों और जीवन-प्रणाली को स्थापित करने में अपूर्व योगदान किया।११ वर्ष २ माह १७ दिन भूतल पर विराज कर संवत् १६९७ फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन आप भगवतलीला में प्रविष्ट हो गये। आपका वियोग न सह पाने के कारण आपके ७८ सेवकों ने भी शरीर छोड़ दिया। आप अत्यन्त लोकप्रिय एवं त्यागी धर्माचार्य थे।

आचार्य श्री हरिरायजी महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य की चौथी पीढी में संवत् १६४७ आश्विन कृष्ण पंचमी को श्री हरिरायजी का प्राकट्य हुआ। आपके पिता श्री कल्याणरायजी थे। आप श्री वल्लभाचार्य के समान ही देवी जीवों के उद्धार के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते थे इसलिए वल्लभ संप्रदाय में आप को वल्लभाचार्य के समान 'महाप्रभु' इस गरिमामय संबोधन से स्मरण किया जाता है। आपमें गोस्वामी विट्ठलनाथजी के समान संगठन क्षमता, भगवतसेवा भावना, असाधारण विद्वता और पतितजनों के प्रति करूणा भाव था। अतः आपको गुसाँईजी विट्ठलनाथजी के समान ही 'प्रभुचरण' के नाम से भी सम्मानपूर्वक याद किया जाता है। श्री हरिरायजी में उत्कृष्ठ कोटि का दैन्यभाव था। वैष्णवों के प्रति उनकी भावना अद्भुत थी। एक पद में तो आपने यहाँ तक कहा है-' हों वारों इन वल्लभीयन पर, मेरे तन को करों बिछौना, शीश धरों इनके चरणनतर।'

श्री हरिरायजी ने पुष्टिमार्ग के भावनापक्ष की श्रेष्ठ व्याख्या की तथा संस्कृत में विपुल ग्रन्थों का प्रणयन किया। आपके १५५ फुटकर ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। श्री मगनलाल शास्त्री का मत है कि इनके संस्कृत, ब्रज आदि भाषो के ग्रंथों की संख्या लगभग १००० होगी श्री हरिरायजी के उत्कृष्ठ ग्रंथों के अतिरिक्त ब्रज भाषा में गोकुलनाथजी के वार्ता साहित्य पर भावप्रकाश लिखा तथा सेवा भावना पर भी अद्वितीय ग्रन्थ की रचना की। इसके अलावा ब्रजभाषा, पंजाबी, मारवाड़ी, और गुजराती में आपने बहुत से पदों की रचना की है। आपके द्वारा रचित 'शिक्षापत्र' और 'वैष्णव वार्ताओं' पर भावभावना वैष्णवों के घरों में नित्य सत्संग के रूप में पढे जाते हैं। हरिरायजी अगाध पांडित्य, भगवद्-रसानुभूति और दैन्य के अद्वितीय उदाहरण थे। हरिरायजी ने अपने ग्रन्थों में संप्रदाय के गूढ रहस्यों और भावनाओं का प्रकटीकरण किया है। आपने १२० वर्षो तक भूतल पर विराज कर वैष्णवों को प्रभु के कृपामार्ग में संलग्न किया।

दशदिगन्तविजयजी गोस्वामी श्री पुरूषोत्तमजी गो. श्री पुरूषोत्तमजी का जन्म श्री वल्लभाचार्य की छठी पीढी में वि.स. १७२४ भाद्रपद शुक्ला एकादशी को गोकुल में हुआ था। आपके पिताजी गो. पीताम्बरजी महाराज थे। आप उद्भट विद्वान् और अप्रतिम भाष्यकार थे। आपने विपुल मात्रा में साहित्य- सृजन किया है। पुष्टि संप्रदाय की मान्यता के अनुसार आपने नौ लाख श्लोक लिखे हैं। गोस्वामी पुरूषोत्तम जी ने महाप्रभुजी के साथ तथा गुसाँईजी के ग्रंथो पर टीकाएँ लिखी है। श्री महाप्रभुजी के तो प्रत्येक ग्रंथ पर आपकी टीका है। यदि महाप्रभुजी के किसी ग्रन्थ पर आपकी टीका उपलब्ध नहीं है तो विद्वान् उस ग्रन्थ को महाप्रभुजी - कृत मानने में संदेह करते है। इनके अतिरिक्त ५२ उपनिषदों पर टीका तथा अन्य स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखें, जिनमें प्रस्थान रत्नाकर, अधिकरणमाला, भावप्रकाशिका आदि विशेष प्रसिद्ध है। आपके लिखें हुए एक सौ ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं। संभवतः इसी कारण आपको लेख वाले पुरूषोत्तमजी कहा जाता है। आपने समकालीन महापंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया और विजय प्राप्त की। इसलिए आपको वल्लभ संप्रदाय में दशदिगन्तविजयी कहा जाता है। आपने शुद्धाद्वैत - दर्शन और पुष्टिमार्ग की महिमा को विभिन्न मतों के अनुयायी विद्वानों के बीच प्रतिष्ठित किया। आपके ग्रन्थों को दर्शनशास्त्र के आधुनिक विद्वान भी प्रामणिक मानते हैं तथा शुद्धादै़त दर्शन का विवेचन इनके ग्रन्थों के आधार पर करते हैं । पुष्टिमार्ग के प्रतिष्ठापक आचार्यों में आपका स्थान अद्वितीय है। गो. पुरूषोत्तमजी संस्कृति -प्रेमी आचार्य थे। आपने अणुभाष्य पर लिखी गई आवरण भंग नामक अपनी टीका में म्लेच्छों के समान वेश-भूषा धारण करने वाले तथा म्लेच्छ भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों को मुर्ख कहकर तिरस्कृत किया है।