वेदों में सर्वव्यापक परम तत्त्व को विष्णु कहा गया है। विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है - 'तद् विष्यों: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)। विष्णु अजय गोप हैं, गोपाल हैं, रक्षक हैं और उनके गोलोक धाम में गायें हैं - 'विष्णुर्गोपा' अदाभ्यः (ऋग्वेद १/२२/१८) 'यत्र गावो भूरिश्रृंगा आयासः (ऋग्वेद १/१५) । विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्ही विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया - 'यज्ञो व विष्णु:'। तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हे त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है, जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप 'भग' से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या भगवत् कहा जाता है। इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी जाना जाता है - जो भगवत् का भक्त हो भागवत्। महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में 'ब्रह्म' स्मृतियों में 'परमात्मा' तथा भागवत् में 'भगवान्' कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है - 'परब्रह्म तु कृष्णो हि' (सिद्धान्त मुक्तावली-३) वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है। भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शांडिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं। वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकश्ष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ। तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध ये चार व्यूह माने गये हैं। एक समय ऐसा आया था जबकि वैष्णव धर्म ही मानों राष्ट्र का धर्म बन गया था। गुप्त नरेश अपने आपको 'परम भागवत्' कहलाकर गोरवान्वित होते थे तथा यूनानी राजदूत हेलियोडोरस (ई.पू. २००) ने भेलसा (विदिशा) में गरूड़ स्तम्भ बनवाया और वह स्वयं को गर्व के साथ 'परम भागवत्' कहता था। पाणिनि के पूर्व भी तैत्तिरीय आरण्यक में विष्णु गायत्री में विष्णु, नारायण और वासुदेव की एकता दर्शायी गयी है - 'नारायणाय विद्मेह वायुदेवाय धीमहि तन्नों विष्णु प्रचोदयात्'। सातवी से चौदहवी शताब्दि के बीच दक्षिण के द्रविड क्षेत्र में अनेक आलवार भक्त हुए, जो भगवद् भक्ति में लीन रहते थे और भगवान् वासुदेव नारायण के प्रेम, सौन्दर्य तथा आत्मसमर्पण के पदो की रचाना करके गाते थे। उनके भक्तिपदों को वेद के समान पवित्र और सम्मानित मानकर 'तमिलवेद' कहा जाने लगा था। वैष्णवों के चार प्रमुख सम्प्रदाय माने जाते है। यह माना जाता है कि इनका प्रवर्तन भगवान की इच्छा से ही हुआ है। ये है - (१) श्री सम्प्रदाय, (२) हंस सम्प्रदाय, (३) ब्रह्म सम्प्रदाय और (४) रूद्र सम्प्रदाय। (१) श्री सम्प्रदाय - यह सम्प्रदाय 'श्री' देवी के द्वारा प्रवर्तित है। इसके आद्य आचार्य रंगनाथ मुनि हैं। उनके पौत्र यामुनाचार्य ने इसे बढाया और रामानुजाचार्य ने इसे गौरव के शिखर पर पहुँचा दिया। इसे आजकल रामानुज सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी 'श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इनका दार्शनिक सिद्धान्त 'विशिष्टाद्वैत' है। ये भगवान् लक्ष्मीनारायण की उपासना करते है। (२) हंस सम्प्रदाय - इस सम्प्रदाय के आदि उपदेशक भगवान् हंस हैं। उनसे सनकादि मुनि और देवर्षि नारद से होती हुई परम्परा निम्बार्काचार्य तक पहुँचती है। वर्तमान में इसे 'निम्बार्क सम्प्रदाय' के नाम से जाना जाता है। इनका दार्शनिक मत द्वैताद्वैत या भेदाभेद है। इस सम्प्रदाय में भगवान् कृष्ण और राधाजी के युगल स्वरूप की उपासना की जाती है। (३) ब्रह्म सम्प्रदाय - इसके प्रवर्तक ब्रह्माजी और प्रतिष्ठापक श्री मध्वाचार्य माने जाते हैं। इनका दार्शनिक मत द्वैतवाद है। इस सम्प्रदाय में श्रीहरि, विष्णु ही परतर या सर्वोच्च तत्त्व है। इस सम्प्रदाय में भी भगवान् विष्णु के ही श्रीकृष्ण, श्रीराम आदि स्वरूपों की आराधना होती है। (४) रूद्र सम्प्रदाय - इस सम्प्रदार्य के प्रवर्तक रूद्र और प्रतिष्ठापक आचार्य विष्णु स्वामी हैं। श्रीमद्वल्लभाचार्य ने इसे गौरव के शिखर पर पहुँचाया । इनका दार्शनिक सिद्धान्त 'शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद' है। यहाँ भगवान् श्री कृष्ण की ही भावमयी सेवा होती है। इसे 'वल्लभ सम्प्रदाय' या 'पुष्टिमार्ग' के नाम से जाना जाता है। इस मत के अनुयायी 'पुष्टिमार्गीय वैष्णव' कहलाते हैं। नाथद्वारा में विराजित श्रीनाथजी पुष्टिमार्ग के सर्वस्व हैं। यहाँ पुष्टिमार्ग की प्रधान पीठ या गृह है। पुष्टिमार्ग भगवत्कृपा का मार्ग है। पुष्टिमार्गीय वैष्णव का विश्वास है कि भगवत्कृपा से ही जीव में भक्ति का उदय होता है तथा उसे भगवत्सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता है। प्रभु की प्राप्ति परम प्रेम से ही होती है। स्नेहात्मिका सेवा और दैन्य से प्रभु रीझते हैं और भक्त को स्वानुभव कराकर कृतार्थ कर देते हैं। प्रभु श्री गोवर्धनधर इतने कृपालु हैं कि निकुंज के द्वार पर खडे़ होकर वामभुजा उठा कर भक्तों को टेरते हैं तथा उनके मन को वश में करके अपनी मुट्ठी में रख लेते हैं। प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति फलात्मिका है और प्रभु स्वयं ही फल है। उनकी कृपा जीव की कृतार्थता है। यह वैष्णव जीवन की सबसे बड़ी साध है - यही वैष्णव जीवन का लक्ष्य है। |