भारत की भूमि परम भाग्यशाली रही है कि यहाँ भगवान की दिव्य विभूतियों अवतरण समय-समय पर होता रहा है, शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद के महान् अचार्य और पुष्टि मार्ग के प्रर्वत्तक महाप्रभु श्री वल्लाभाचार्य का प्राकट्य भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक इतिहास की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है। श्री वल्लभाचार्यजी ने भारतीय दार्शनिक चिंतन को समन्वयात्मक दृष्टि प्रदान की, भारतीय धर्म-साधना को नया आयाम दिया तथा वैष्णव धर्म की कृष्ण-भक्ति धारा को अपूर्व विशिष्टता प्रदान की। आपके व्यक्तित्व, कृतित्व, सिद्धान्त और साधना-प्रणाली ने भारतीय जनमानस को बहुत गहराई तक प्रभावित किया है। श्री वल्लभाचार्य जी के पूर्वज आन्ध्रप्रदेश में कृष्णा नदी के दक्षिण में स्थित काँकरवाड़ स्थान के निवासी थे। ये विष्णुस्वामी संप्रदाय के अनुयायी और गोपालकृष्ण के उपासक थे। गोपालमंत्र इनका दीक्षामंत्र था। यह परिवार परम धार्मिक था। इस परिवार में कई पीढि यों से वैदिक सोमयज्ञों की परम्परा चल रही थी। श्रीवल्लभाचार्य के पूर्वज यज्ञनारायण भट्ट ने अपने परिवार में सोमयज्ञ की परम्परा आरम्भ की। उन्हे भगवान् का यह वरदान मिला था कि सौ सोम यज्ञ पूर्ण होने पर मैं आपके परिवार में अवतार लूँगा इस वरदान के सफल होने की प्रतीक्षा में इस परिवार में पाँच पीडियों तक सोमयज्ञों की अखंड परम्परा चलती रही। इस वंश में पाचवी पीढ़ी में श्री लक्ष्मण भट्ट का जन्म हुआ। ये भी अपने पूर्वजों के समान उद्भट विद्वान् थे। इनका विवाह विजयनगर के धर्माधिकारी सुधर्मा की पुत्री इल्लम्मागारू के साथ हुआ। इस दम्पती के रामकृष्ण नाम का एक पुत्र ओर सरस्वती तथा सुभद्रा नाम की दो पुत्रियाँ हुई। इस समय तक श्री लक्ष्मण भट्ट पांच सोमयज्ञ पूर्ण कर चुके थे। इनकी पूर्ति के साथ ही इस वंश का सौ सोमयज्ञ करने का संकल्प पूरा हो चुका था। श्री लक्ष्मण भट्ट बृहद ब्रह्मभोज का संकल्प लेकर काशी आये। उनके मन मे इस बात से अत्यधिक प्रसन्नता थी कि अब सौ सोमयज्ञ पूर्ण हो जाने पर इनके परिवार में भगवान् का प्राकट्य होगा। श्री लक्ष्मण भट्ट काशी में हनुमानघाट पर एक मकान लेकर रहने लगे। उनका समय अध्ययन-अध्यापन और शास्त्रचर्चा में व्यतीत होता था। काशी के बाद उच्चकोटि के विद्वानों से उनका संम्पर्क था। उन्ही दिनों एक बार काशी पर प्रबल मुस्लिम आक्रमण होने की आशंका बनी। लोग काशी छोड़कर भागने लगे। श्री लक्ष्मण भट्ट भी अपनी धर्मपत्नी इल्लम्मागारू के साथ अपने मूल स्थान आन्ध्र की और चल दिए। उस समय इल्लम्मागारू को सात मास का गर्भ था। उनकी स्थिति प्रवास के लायक नहीं थी, किन्तु काशी छोड ना आवश्यक था, इसलिए वे अपने पति के साथ लम्बे प्रवास पर निकल पडी। यात्रा लम्बी और कष्टप्रद थी। इल्लम्मागारू काफी थक गई। फिर भी प्रवास जारी रखना ही था, अतः वे चलती रही। संवत १५३५ वैशाख कृष्ण ११ को ये लोग मध्यप्रदेश के (वर्तमान छत्तीसगढ़) रायपुर के पास चम्पारण्य नामक स्थान पर पहुँचे। लगातार प्रयास के श्रम और थकान के कारण इल्लम्मागारू को असमय में ही प्रसव-वेदना होने लगी। इन्हे वही रूकना पडा। वही रात्रि से समय से पूर्व इल्लम्मागारू को प्रसव हो गया। नवजात शिशु न तो रोया और न उसमें किसी प्रकार की चेष्टा ही मालूम पडी। रात्रि के उस अन्धकार मे उस बालक को मृतक मानकर वस्त्र में लपेटकर श्री लक्ष्मण भट्ट ने वृक्ष के कोटर में रख दिया। श्री लक्ष्मण भट्ट और इल्लम्मागारूजी ने सौ सोमयज्ञ पूर्ण होने पर भगवान् के अवतार के दिव्य सपने संजोये थे। किन्तु यह क्या हो गया? सौ सोमयज्ञ का फल मृत शिशु! वे अत्यन्त दुःखी हुए। अन्ततः वे उस अरण्य (जंगल) से आगे बढे और निकट के गांव में जाकर विश्राम करने लगे। माता का हृदय तो मानों दुःख से टूट ही गया था। उनका वात्सल्यभरा आस्तिक मन स्वीकार ही नहीं कर पा रहा था कि सौ सोमयज्ञों के फलस्वरूप प्राप्त देवी सन्तान मृत हो सकती है। उनकी आँसूभरी आँखों में नींद नहीं थी, किन्तु लक्ष्मण भट्ट को झपकी लग गयी। तभी उन्हे स्वप्न आया। स्वप्न में भगवान् कह रहे थे-'जिस नवजात शिशु को आप मृत जानकर छोड कर आये है उसके रूप में तो मै स्वयं ही तुम्हारे घर पधारा हूँ। लक्ष्मण भट्ट चौकंकर जग गये। उन्होने इल्लम्मागारू को कहा देवी दुःखी मत हो, हमारा शिशु जीवित है। शिशु के रूप में भगवान् ही पधारे है। चलो, हम वही लौट चले,जहाँ शिशु को छोड कर आये है। उस देवी शिशु को लेकर आवें। दोनो चल दिये वे उसी वृक्ष के पास पहुँचे। प्रभात होने को था। वे यह देखकर आश्चर्य चकित हो गये कि उस वृक्ष के चारों ओर अग्निकुण्ड के समान आग चल रही है। ममतामयी माँ ने आग की परवाह नहीं की। दौड़कर अपने लाल को छाती से लगा लिया। शिशु जीवित और सकुशल था। माँ के स्तनों से दूध झरने लगा। वह बालक को छाती से चिपकाये हुए थी। उनके नैत्रों से हर्ष के आँसू झर रहे थे। लक्ष्मण भट्ट भी आनन्दमग्न थे। इस प्रकार वल्लभाचार्य का अलौकिक, दिव्य प्राकट्य संवत् १५३५ संवत् १४०० ई. सन् १४७९ वैशाख कृष्णपक्ष ११ को हुआ। नवजात शिशु को लेकर पिता लक्ष्मण भट्ट और माता इल्लम्मागारू चौडानगर गये। वहां के प्रमुख कृष्णदास आपके पूर्व परिचित थे। श्री लक्ष्मण भट्ट के आशीर्वाद से उन्हे पुत्र प्राप्त हुआ था। उन्होने श्री लक्ष्मण भट्ट का स्वागत किया। कुछ दिनों तक वे वहीं ठहरे। नामकरण संस्कार में बालक का नाम वल्लभ रखा गया। वे कुछ दिनों बाद दक्षिण में अपने प्रदेश आन्ध्र की ओर बढ ने की तैयारी कर रहे थे, तभी उन्हे ये समाचार मिले कि काशी पर आया हुआ संकट टल गया है, इसलिए लक्ष्मण भट्ट ने पुनः काशी की ओर प्रस्थान किया। छः मास की उम्र में श्री वल्लभ का अन्नप्राशन संस्कार हुआ। उस समय उनके सामने अनेक प्रकार की वस्तुएँ रखी गई। उन वस्तुओं मे से शिशु वल्लभ ने खिलौने आदि वस्तुएँ न उठाकर पुस्तक उठाई। इससे सभी उपस्थित व्यक्तियों ने यह अनुमान लगाया कि यह बालक भविष्य में असाधारण विद्वान् होगा। बचपन में जब बच्चे मिलकर राजा-सिपाही आदि का खेल खेलते तब श्री वल्लभ गुरू बनते थे यथा राजा और अन्य सभी को उपदेश देते थे। वे जब भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों और रसमयी लीलाओं का वर्णन करते तो सभी भावमग्न हो जाते थे। सभी बच्चों पर उसका गहरा प्रभाव होता था। श्री लक्ष्मण भट्ट के घर में अनेक चित्र थे, जिसमे भगवान् श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाएँ चित्रित थी। इनमें एक चित्र रासलीला का भी था। बालक श्री वल्लभ इस रासलीला के चित्र को घंटो निहारा करते थे। भगवान् की रासलीला के दिव्य भावों का श्रीवल्लभ के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा। आपने श्रीमद्भागवत पर लिखी गई अपनी सुप्रसिद्ध 'सुबोधिनी' टीका में भगवान् की रासलीला के दिव्य रहस्यों को सुन्दर ढंग से स्पष्ट किया है तथा रासलीला को परमफलरूपा माना है। आठवे वर्ष की उम्र में श्रीवल्लभ का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। श्रीवल्लभ ने व्याकरण, साहित्य, न्याय, वेद-वेदांत, पूर्वमीमांसा, योग, सांख्य, आगम-शास्त्र, गीता, भागवत, पंचरात्र, शंकर-रामानुज-मध्व-निम्बार्क आदि आचार्यों के मतों तथा विभिन्न दर्शनों का गहन अध्ययन किया था। आपने जैन-बौद्ध आदि के सिद्धांतों का भी ज्ञान प्राप्त किया। श्री लक्ष्मण भट्ट स्वयं उच्चकोटि के विद्वान् थे और विभिन्न शास्त्रों के विद्वानों से उनका अच्छा सम्पर्क था। आपने अपने पुत्र श्रीवल्लभ को विभिन्न शास्त्रों मर्मज्ञ विद्वानों के पास अध्ययन के लिये भेजा, जिससे कि उन्हे उन शास्त्रों का गंभीर और प्रमाणिक ज्ञान प्राप्त हो सके । सन् १४९० (संवत् १५४६) में जब श्रीवल्लभ ११ वर्ष के ही थे, तब उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट का देहावसान हो गया। उनके उत्तरकार्य सम्पन्न करने के बाद श्रीवल्लभ ने अपनी माताजी के साथ काशी छोड़कर दक्षिण भारत की यात्रा करने का निश्चय किया, क्योकिं उत्तर भारत में अधिकत्तर राज्यों में मुस्लिम साम्राज्य था तथा दक्षिण में विजयनगर में शक्तिशाली सम्राज्य था, जहाँ श्री वल्लभाचार्य के मामा रहते थे। वे राज्य के दानाध्यक्ष थे। वहीं श्री वल्लभाचार्य अपनी माता जी को छोड कर सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करना चाहते थे। इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी था कि दक्षिण भारत शंकर, रामानुज, भास्कर, निम्बार्क, मध्व आदि महान् आचार्यों की जन्म भूमि थी। वहां इन आचार्यो के महत्त्वपूर्ण पीठ थे। श्रीवल्लभ की इच्छा थी कि उन स्थानों पर जाकर भारतीय दर्शन के विभिन्न मतों के विद्वानों से सम्पर्क करें, उनकी चर्चा हो, शास्त्रार्थ हो। श्री वल्लभाचार्य ने तीन बार सारे भारत की यात्रा की। आप यज्ञोपवीत, मृगचर्म, दण्ड, कटिमेखला, तुलसी-माला, तिलक, कमण्डल, कोपीन-कटिवस्त्र, उपवस्त्र धारण किये हुए रहते थे। केश जटारूप थे। ये ब्रह्मचारी वेश में थे। पैरों में पादुकाएँ भी नहीं पहनते थे। इन यात्रा को सम्प्रदाय के ग्रन्थों में 'श्रीवल्लभदिग्विजय' तथा 'पृथ्वीपरिक्रमा' के रूप में वर्णित किया गया है। इन यात्राओं से श्रीवल्लभाचार्य को देश की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिस्थितियों को जानने का अवसर मिला। ये यात्राएँ उनके लिए एक ओर तो शिक्षाप्रद यात्राएँ थी तो दूसरी ओर उनकी ज्ञान-गरिमा के प्रचार-प्रसार और व्यापक प्रभाव का कारण भी बनी। श्री वल्लभ काशी (बनारस) से तीर्थराज प्रयाग, चित्रकूट, अपनी जन्मभूमि चम्पारण्य, अमरकटंक होते हुए वर्धा (वृद्धिनगर) पधारे। वहाँ के धनपति के पुत्र दामोदरदास हरसानी आपके साथ चल दिया, जो कि जीवनभर छाया के समान साथ में ही रहा। वे अपने काका जनार्दन के पास अग्रहार पहुँचे। वहाँ श्रीवल्लभ के छोटे भाई केशव का यज्ञोपवीत हुआ। वहाँ से वे तिरूपति में श्री व्यकटेश भगवान् के दर्शन कर विजयनगर पहुँचें। माताजी एवं परिवार को विजयनगर में अपने मामा के घर छोड़कर बाद की यात्राएं आपके अपने पिताजी के कतिपय शिष्यों-शंभु, स्वयभू, विभु, स्वभू, केतु, कमंडलु, लकुटालोकी तथा अपने शिष्यों दामोदरदास हरसानी, कृष्णदास मेघन के साथ की। कालान्तर में श्रीवल्लभ अपने शिष्यों के साथ प्रवास करते रहे। वल्लभ के प्रवास में दो प्रसंग विशेष उल्लेखनीय है, जिनके कारण सम्पूर्ण भारत में आपकी आचार्य के रूप में कीर्ति फैल गयी। एक प्रसंग जगन्नाथपुरी का है। जब श्री वल्लभ भगवान् जगन्नाथजी के दर्शनों के लिये गये तो वहाँ एक विशाल धर्मसभा जुड़ी हुई थी, जिसमें विभिन्न दार्शनिक-धार्मिक सम्प्रदायों के विद्वान् सम्मिलित हुए थे। इस धर्मसभा में वहाँ का राजा भी उपस्थित था। चर्चा चार प्रश्नों पर केन्द्रित थी - (१) मुख्य शास्त्र कौन-सा है? (२) मुख्य देव कौन है? (३) मुख्य मंत्र क्या है? और (४) मुख्य कर्म क्या है? उपस्थित विद्वान् अपने-अपने मत प्रस्तुत कर रहे थे, किन्तु कोई सर्वमान्य समाधान प्रस्तुत नहीं हो सका था। बाल सरस्वती श्री वल्लभ ने जब वहाँ पहुँचकर यह देखा कि अनिर्णय की स्थिति में ही धर्मसभा विसर्जित होने वाली है, तो आपने राजा से चर्चा में सम्मिलित होने की अनुमति माँगी। आपने कहाँ-(१) भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा गायी गयी श्रीमद्भगवद्गीता ही एक मात्र शास्त्र है (२) श्री कृष्ण ही एक मात्र देव है। (३) भगवान् श्री कृष्ण के नाम ही एक मात्र मंत्र है और (४) भगवान् श्री कृष्ण की सेवा ही एक मात्र कर्म है। लगभग सभी विद्वान इस निष्कर्ष से सहमत थे, किन्तु कुछ स्वयं को महापंडित मानने के अंहकार में डूबे हुए विद्वान इस निष्कर्ष लिए प्रमाण चाहते थे। कहा जाता है कि प्रमाण प्राप्त करने के लिए कागज-कलम-दवात श्री जगन्नाथजी के निजमंदिर में रख दिये तथा द्वार बन्द कर दिये गये। थोड़ी देर के बाद जब पट खोले गये तो कागज पर निम्नलिखि श्लोक लिखा हुआ था, जिससे वल्लभ द्वारा दिया गया निष्कर्ष प्रमाणित होता था- एकं शास्त्रं देवकी पुत्रगीतम, एको देवो देवकीपुत्र एव। मंत्रोप्येकस्तस्य नामनि यानि, कर्माप्येक तस्य देवस्य सेवा॥ श्री वल्लभाचार्य ने इस श्लोक को अपने शास्त्रार्थप्रकरण नामक ग्रन्थ में भी उद्धृत किया है। आपने भी लिखा है कि भगवान् श्रीहरि ने सन्देह की निवृत्ति के लिए स्वयं ही ये उद्गार व्यक्त किये है। (शा.प्र. ३) इस प्रसंग से श्रीवल्लभ को दार्शनिक-धार्मिक क्षेत्र में अत्यन्त आदर के साथ देखा जाने लगा। दूसरा प्रसंग उस समय के गरिमामय, हिन्दू साम्राज्य विजयनगर का है। श्रीवल्लभ जब विजयनगर पहुँचे तो वहाँ कई दिनों से एक धर्मसभा चल रही थी। उसमे शास्त्रार्थ चल रहा था कि सभी शास्त्रों, मुख्यतः प्रस्थानत्रयी-वेद, व्यासकृत ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवतद्गीता के प्रतिपाद्य सिद्धान्त क्या है? परमतत्व ब्रह्म क्या सम्बंध है? ब्रह्म और जगत का क्या संबंध है? मायावाद के सिद्धान्त का शास्त्रीय आधार है या नहीं ? इस शास्त्रार्थ में दो पक्ष थे - एक ओर द्वैतवादी मध्वाचार्य के अनुयायी तथा अन्य वैष्णव समप्रदाय थे तथा दूसरी ओर अद्वैतवादी शंकराचार्य के अनुयायी थे। अध्यक्ष एवं निर्णायक के पद पर विद्यातीर्थ आसीन थे। इस समय यद्यपि विजयनगर के राजा नरसिंह थे, किन्तु वास्तविक शासन उनके छोटे भाई कृष्णदेवराय का चलता था, इसलिए उनका उल्लेख राजा कृष्णदेवराय के रूप में हुआ है। उन्ही के निर्देशों से यह बड़ा आयोजन किया गया था। श्री वल्लभ जब विजयनगर पहुँचे तब कई दिनों से चल रहे इस शास्त्रार्थ में यह स्थिति बन गई थी कि द्वैतमतावलम्बी एवं वैष्णव हारते जा रहे थे और अद्वैतवादियों का पलड़ा भारी होता जा रहा था। श्री वल्लभ को शास्त्रार्थ में प्रवेश मिल गया। श्री वल्लभ ने वेद, ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भवतद्गीता और श्रीमद्भागवत के आधार पर सभी प्रतिपक्षी विद्वानों को अकाट्य उत्तर दिये और वैदिक ब्रह्मवाद के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। आपने यह सिद्ध किया कि इसी अर्थ का निर्णय श्रीहरि ने सभी वेदवाक्यों, रामायण, महाभारत, पंचरात्र तथा अन्य शास्त्रवचनों ओर व्याससूत्रों में एकवाक्यता स्थापित करते हुए इसके रहस्य का, हार्द का श्रीमद्भगवतद्गीता में निर्णय किया है। श्री वल्लभ के अकाट्य तर्को और सप्रमाण शास्त्रीय विवेचन का प्रतिपक्षियों के पास कोई उत्तर नहीं था। अन्त में अध्यक्ष श्री विद्यातीर्थ ने मध्ययस्थों के निष्कर्ष और राजा कृष्णदेवराय की सहमति से वल्लभाचार्य को विजयी घोषित किया। निर्धारित तिथि के दिन श्री वल्लभ को सोने के पीठ पर बैठाकर सोने के पात्रों से कनकाभिषेक किया गया। बाद में राजा ने श्री वल्लभ से उन सोने के पात्रों को स्वीकार करने की प्रार्थना की, किन्तु श्री वल्लभ ने इन पात्रों को लेने से इंकार कर दिया। उनकी त्यागवृति से सभी बहुत प्रभावित हुए। उनकी इच्छानुसार यह सारा सोना विद्वानों और ब्राह्मणों में बाँट दिया गया। कनकाभिषेक के बाद आपका 'आचार्य' के रूप में तिलक किया गया। तथा श्री वल्लभाचार्य के सेवक (श्ष्यि) बने। उन्होने एक थाल में सोने की मुद्राएँ भरकर आपको भेट की, किन्तु वल्लभाचार्य ने उनसे केवल सात मुद्राए स्वीकर की, जिनसे श्री ठाकुरजी के आभूषण बनवाये गये। श्री वल्लभाचार्य ने अपना सम्पूर्ण जीवन धर्म-संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए समर्पित करने का निश्चय कर लिया था, किन्तु उनकी माताजी का आग्रह लगातार यह रहता था कि वे विवाह कर ले। श्री वल्लभाचार्य यह विचार कर रहे थे कि यदि विवाह करके गृहस्थ जीवन स्वीकार किया जाए तो वह कहीं धर्म-संस्कृति के कार्य में बाधक न बन जाए। इसी बीच प्रवास करते हुए वे पंढरपुर पहुँचें। वहाँ प्रभु श्री विट्ठलनाथजी और श्री रूक्मिणी जी (विठोबा-रूकमाई) के दर्शन अर्चन किये। रात्रि में स्वप्न में श्री विठोबा ने उन्हे दर्शन दिये और कहा-''मै आपके विचारों को जानता हूँ। आप एक महान् धर्माचार्य बनेगे। सन्यासी होने की अपेक्षा यह अच्छा होगा कि आप गृहस्थ बनकर धर्म-प्रचार करें। गृहस्थ आचार्य के रूप में आप धर्म की अधिक सेवा कर सकेंगे। आपके सम्मुख आपकी जाति की कन्या से विवाह प्रस्ताव आएगा वह स्वीकार कर लेना।'' भगवान् का आदेश मिलने पर श्रीवल्लभाचार्य ने विवाह करके गृहस्थ जीवन जीने का निर्णय कर लिया। श्री वल्लभाचार्य बघेलखंड के चेदीपुर (चंदेरी) स्थान पर पहुँचे। वहाँ का राजा रामचन्द्र एक सिद्ध किन्तु महान् क्रोधी यति घटसरस्वती से बहुत प्रभावित था। उस यति के संबंध में कहा जाता था कि सरस्वती उसके वश में है। राजा की बेटी को भी उसने अपनी आकर्षण विद्या से संमोहित कर लिया था। वह कोई भी रूप धारण कर सकता था। वह आकाशमार्ग में कही भी यात्रा कर सकता था। सरस्वती घट में विराज कर उसके पक्ष में निर्णय देती थी। श्री वल्लभाचार्य से जब शास्त्रार्थ हुआ, तब भी उसने बीच में निर्णायक के रूप में घट रख दिया था किन्तु जब घट में स्थित सरस्वती से पूछा गया तो उसे कोई उत्तर नहीं मिला। जब बहुत आग्रह किया गया तो श्री वल्लभाचार्य के पक्ष में निर्णय मिला। क्रोधी यति ने पूछा-'यह आपने क्या किया?' तो घट से आवाज आई-'वाणी (सरस्वती) के पति श्रीहरि है। श्रीवल्लभाचार्य भगवान् के मुख वैश्वानर (अग्नि) के अवतार है। उनके सही पक्ष विरूद्ध तुम्हारे पक्ष में झूठा निर्णय कैसे दे सकती हूँ ?' यह सुनकर यति घटसरस्वती लज्जित हो गया। राजा रामचन्द्र श्रीवल्लभाचार्य की शरण मे आया और उसने शरण मंत्र लिया। भगवान् विठोबा की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए तथा माताजी की इच्छा का सम्मान करते हुए श्री वल्लभाचार्य ने द्वितीय भारत भ्रमण से काशी लौटने पर देवन भट्ट की पुत्री महालक्ष्मी से विवाह किया। विवाह के उपरान्त आप पुनः तीसरी बार धर्म-प्रचार हेतु भारत-भ्रमण पर चल दिये। श्रीवल्लभाचार्य की ख्याति सारे देश में मायावाद के निराकर्ता (खंडन करने वाले) और शुद्धाद्वैत दर्शन ब्रह्मवाद के संस्थापक वैष्णव आचार्य के रूप में फैल गई थी। वे जहाँ भी जाते थे, वहाँ उच्चकोटि के विद्वान् आपसे शास्त्रचर्चा के लिए आते थे। कई प्रतिपक्षी विद्वान् आपसे शास्त्रार्थ करने भी आते थे। आप सभी का सतोषजनक समाधान करते थे। देश की आस्तिक जनता तो आपसे उपदेश सुनने के लिए उमड़ पड़ती थी। आपकी यह इच्छा थी कि सामान्यजनों के लिए सरस तथा प्रेममयी भक्ति-प्रणाली निर्धारित की जाए। वे इसी विषय में रात-दिन चिन्तन करते रहते थे। जब आप गुजरात-सौराष्ट्र की यात्रा पूर्णकर झारखंड का प्रवास कर रहे थे, तब आपको भगवत्-आदेश हुआ कि ब्रज में जाकर वहाँ प्रकट हुए देवदमन श्री गोवर्धनधर की सेवा-प्रणाली स्थापित करे। इसलिए आपने विचार की दिशा बदल दी और ब्रज की और चल दिये। आप वि० संवत् १५६३ ई. सन् १५०६ के श्रावण मास में गोकुल पहुँचे। वहाँ गोविन्दघाट पर मुकाम किया। रात्रि में श्री वल्लभाचार्य इस चिन्तन में मग्न थे कि जीव तो स्वभाव से ही दोषों से भरा हुआ है। दोषो से भरे जीव का निर्दोष पूर्ण पुरूषोत्तम प्रभु से सम्बंध कैसे हो सकता हैं? दोषों से भरे जीव को प्रभु कैसे स्वीकार करेंगे? वह श्रावण शुल्क एकादशी गुरूवार मध्यरात्रि थी। तभी मानव-कल्याण के चिन्तन में मग्न श्री वल्लभाचार्य के सम्मुख साक्षात् श्री गोवर्धनधर प्रकट हुए। आपने कहा 'जीवो' ब्रह्मसंबंध करों। ब्रह्मसंबंध से जीव के सभी दोषों की निवृति हो जायेगी और में उन्हे अंगीकार करूंगा। श्री वल्लभाचार्य ने उसी समय प्रभु को पवित्रा समर्पित किये। एकादशी की रात्रि में भगवान् को पवित्रा समर्पित करके आपने यह संदेश दिया कि पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों और मन से सांसारिक वस्तुओ, संबंधो ओर प्रवृतियों को तथा स्वयं को प्रभु के चरणों में समर्पित करने से जीव में भगवदीयता आती है तथा वह निर्दोष और पवित्र हो जाता है। इस महान् दैवी घटना का संकेत स्वयं भी वल्लभाचार्य ने अपने 'सिद्धान्तरहस्य' ग्रन्थ में दिया है- श्रावणस्यामले पक्षे एकादश्यां महानिशि। सक्षाद् भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते॥१॥ ब्रह्मसम्बन्धकरणात् सर्वेषा देहजीवयोः सर्वदोषनिवृत्तिर्हि..................॥२॥ (श्रावण मास के शुल्क पक्ष की एकादशी की मध्यरात्रि में साक्षात् भगवान् के द्वारा कही गयी बात अक्षरशः कही जा रही है। ब्रह्मसंबंध करने से देह-जीव के समस्त दोषों की निवृत्ति निश्चय होगी।) इस भगवद्-आज्ञा से जीवों के उद्धार का सहज मार्ग खुल गया। यह दैवी जीवों के लिए राजमार्ग था। श्री वल्लभाचार्य श्री गोवर्धनधर (देवदमन) के प्राकट्य स्थल को खोजते हुए ब्रज के आन्योर ग्राम पहुँचे। वे सद्दू पाण्डे के घर के ओटले पर ठहरे। वहाँ एक घटना घटित हुई। पर्वत पर से किसी बालक की आवाज आई-'अरी नरो! दूध ला।' सद्दू पाण्डे की बेटी नरों ने उत्तर दिया - लाला! आज तो हमारे घर पाहुने आये है।' पर्वत से फिर ध्वनी सुनाई दी-'पाहुने आये है तो अच्छा है, पर मेरे लिए दूध तो ला।' नरों ने प्यार से कहा-'अभी लाती हूँ लाला'। श्रीवल्लभाचार्य को लगा कि यह स्वर तो प्रभु का वही स्वर है, जो झारखंड में मैने सुना था जिसके कारण मै यहां आया हूँ और ब्रज में प्रकट हुए गोवर्धनधर देवदमन को खोज रहा हूँ। निश्चय ही प्रभु का प्राकट्य यहीं हुआ है। वह इस चिन्तन में लीन थे, तभी नरो देवदमन गोवर्धननाथ को दूध पिलाकर लौट आई। आचर्यश्री ने पूछा-'इस लुटिया में कुछ दूध बचा है? नरो बाली-हाँ, महाराज रंचक (थोडा) बचा है। अभी लुटिया भर लाती हू। किन्तु आचार्यश्री ने कहा-'नहीं, हमे तो जो इसमें बचा है, वही दूध चाहिए। नरो ने लुटिया आचार्य श्री को दे दी। श्री वल्लभाचार्य ने प्रभु श्रीनाथजी का वह अधरामृत ग्रहण किया। उन्हे परमतृप्ति का अनुभव हुआ। उन्हे हर्ष के कारण रोमांच होने लगा। रात्रि में सदू पाण्डे के परिवार के लोग वृद्ध ब्रजवासी बैठे। तब आचार्यश्री ने गिरिराज पर गोवर्धनधर कैसे प्रकट हुए, उसका पूरा विवरण पूछा। आचार्य श्री वल्लभ देवदमन गोवर्धननाथजी के प्राकट्य का विवरण सुनकर भावविभोर हो गये। प्रातः काल श्रीवल्लभाचार्य अपने सेवकों (शिष्यो) और ब्रजवासियों के साथ गिरिराज गोवर्धन पर पधारे। प्रभु श्री गोवर्धननाथजी श्रीवल्लभाचार्य को देखकर प्रसन्न हुए। श्रीवल्लभाचार्य दौड़ते हुए से प्रभु की ओर बढ रहे थे। प्रभु ने आगे बढ कर उन्हे हृदय से लगा दिया। इस प्रसंग के संबंध में गुजराती के भक्तकवि गोपालदास ने 'श्रीवल्भभाख्यान' में लिखा है-'हरषेते सामा आविया श्रीगोवर्धनधरण'। श्री वल्लभाचार्य ने श्रीनाथजी (श्री गोवर्धनधर) के लिए घास-फूस का खपरैल वाला एक छोटा मंदिर सिद्ध करवाया (बनवाया) और प्रभु को पाट बैठाया, विराजमान किया। श्रीनाथजी की राग, भोग, श्रृंगारयुक्त भावमयी सेवा (प्रेमपूर्विका पूजा) की प्रणाली निश्चित की। विद्यर्मियो की पराधीनता के उस युग में हिन्दू जनता पर अनेक प्रतिबन्ध थे। उन दिनों दिल्ली में सिकन्दर लोदी का राज्य था तथा मथुरा भी दिल्ली के सुल्तान के अधीन थी। श्रीवल्लभाचार्य को ब्रज बहुत प्रिय था। ब्रज में रहना उन्हें अत्यन्त प्रिय था। श्रीवल्लभाचार्य पूरे ब्रज की यात्रा करना चाहते थे। उनके साथ सैकड़ों वैष्णव भी ब्रजयात्रा करने के लिए लालायित थे, किन्तु स्थानीय अधिकारियों ने इसकी अनुमति प्रदान नहीं की। श्रीवल्लभाचार्य निराश होकर बैठने वाले धर्माचार्य नहीं थे। उन्होने दिल्ली में राजकीय अनुमति प्राप्त करने का निश्चय किया। उस समय प्रतिबन्धों के कारण हिन्दू शवदाह के संदर्भ में न तो यमुनातट पर शवदाह के पूर्व क्षौरकर्म करवा सकते थे और शवदाह के उपरान्त में सामूहिक रूप से यमुना -स्नान ही कर सकते थे। राजकीय आदेश का उल्लंघन न हों इसलिए घाटों पर शासकीय कर्मचारी तैनात थे। इतना ही नहीं मथुरा के स्थानीय अधिकारी छल-बल से धर्म-परिवर्तन भी करवाते थे। इसका उल्लेख सम्प्रदाय के ग्रन्थों में यंत्र की घटना के रूप में मिलता है। श्रीवल्लभाचार्य ने अपने दो योग्य एवं विश्वसनीय शिष्यों -वासुदेव छकड़ा और कृष्णदास मेधन को दिल्ली में सुल्तान के पास फरियाद करने के लिए भेजा। श्रीवल्लभाचार्य के असाधारण अलौकिक प्रभाव के कारण ब्रज यात्रा की राजकीय अनुमति मिल गई तथा अनावश्यक प्रतिबंध हटे। आचार्यश्री के नेतृत्व में द्वादशवी ब्रज यात्रा सम्पन्न हुई। इससे हिन्दू जनता में अपार आत्मबल का संचार हुआ। धर्मजागरण और भागवत-क्रान्ति का अभूतपूर्व वातावरण बना। आपने बद्रीनाथ से रामेश्वरम् और द्वारका से जागन्नाथपुरी तक तीन बार भारत की यात्रा कर हजारों व्यक्तियों के जीवन में भगवान् के प्रति आस्था, भगवत्-बल के प्रति दृढ़ विश्वास, स्वधर्म का स्वाभिमान ओर आत्मबल जगाया। हजारों-हजारों व्यक्तियों को भगवान् की भक्ति में लगाया, जिससे उनके जीवन में असीम आन्नद की उपलब्धि हुई। अब जनता के लिये श्रीवल्लभाचार्य केवल सद्गुरू और धर्माचार्य ही नहीं रह गये थे, जनता उन्हे असीम श्रद्धा के साथ 'महाप्रभुजी' कहने लगे थे। भक्तगण तो उन्हे साक्षात् श्रीकृष्ण रूप ही मानते थे। तीन बार भारत भ्रमण के बाद श्री वल्लभाचार्य काशी में रहने लगे, किन्तु वहाँ कुछ विध्नसंतोषी और कुटिल प्रवृति के पंडितों ने महाप्रभुजी को कष्ट देना आरभ कर दिया। इससे उनकी भगवत सेवा में, एकान्त चिन्तन में और नियमित ग्रंथ-लेखन में बाधा उपस्थित होने लगी। अतः श्री महाप्रभुजी ने काशी छोंड़ कर अपना निवास काशी के पास चरणाट (चरणाद्रि) नामक स्थान पर बना लिया। वहाँ कुछ दिनों तक उनका भगवत्सेवा, सत्संग, चिन्तन और लेखन का कार्य निर्विध्न चला, किन्तु काशी के पास होने के कारण वहाँ भी अनेक व्यक्ति शास्त्रार्थ के लिए पहुँचने लगे। श्री महाप्रभुजी ग्रंथ-लेखन में अधिकाधिक समय देना चाहते थे, इसलिए आपने चरणाट छोंड़ कर तीर्थराज प्रयाग के पास गंगा किनारे अडेल नामक ग्राम को अपना स्थायी निवास बना लिया। वहाँ उनका लेखन-कार्य सुचारू रूप से चलने लगा। श्रीवल्लभाचार्य के दो पुत्र हुए। पहले पुत्र गोपीनाथजी का जन्म वि.स.१५७० में अन्य मत के अनुसार (वि.सं. १५६७ ई. सन् १५१०) में अश्विन कृष्ण १२ को अडेल में हुआ तथा दूसरे पुत्र विट्ठलनाथजी का जन्म वि.सं. १५७२ ई. सन् १५१५ पौष कृष्ण ९ को चरणाट में हुआ। महाप्रभुजी ने अपना सम्पूर्ण जीवन भगवान् श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिया था। गृहस्थ होकर भी गृह या धन-सम्पत्ति से उन्हे कोई लगाव नहीं था। वे घर में रहते हुए भी पूरी तरह निर्लिप्त रहते थे, जैसे जल में रहते हुए कमल उससे ऊपर रहता है। वे भगवान् को समर्थ मानकर सभी चिन्ताओं से मुक्त रहते थे। उनका जीवन भगवान् के लिए था। वे हर कार्य भगवान् की सेवा मानकर भगवान् के लिए ही करते थे। अम्बाला के एक व्यापारी पूरणमल खत्री को भगवत प्रेरणा हुई-श्रीनाथजी का नया मंदिर बनाने की। उसने श्री महाप्रभुजी के सम्मुख यह बात रखी और मन्दिर निर्माण करने की अनुमति प्रदान करने की प्रार्थना की। महाप्रभुजी ने उसे मन्दिर बनवाने की अनुमति दे दी और शिल्पकार को बुलवाया। उसे घर के समान शिखर-विहीन मंदिर का नक्शा बनाकर लाने का आदेश दिया। दो बार उसने नक्शा बनाया और दोनो बार अनजाने में उससे शिखरयुक्त मंदिर का नक्शा बन गया। उसने यह स्थिति महाप्रभुजी के सम्मुख रखी, आपश्री ने इसे भगवान् की इच्छा मानकर शिखरयुक्त मंदिर बनवाने की अनुमति पूरणमल खत्री को दे दी। सं. १५१९ में वैशाख मास में अक्षय तृतीया के दिन श्रीनाथजी को नये मंदिर में पधराया गया। मंदिर की उचित व्यवस्था और श्रीनाथजी का उपयुक्त सेवा-क्रम जमाकर महाप्रभुजी मधुबन पधारें। वहाँ आपको स्वधाम पधारने की भगवत्-आज्ञा हुई, इसके पूर्व भी गंगासागर में ऐसी ही भगवत्-आज्ञा हो चुकी थी। महाप्रभुजी तत्काल अडेल लौट आये। इस समय आप श्रीमद्भागवत की सुबोधिनी टीका लिख रहे थे संभवतः प्रथम तीन स्कन्धों की सुबोधिनी पूर्ण हो चुकी थी। आचार्यश्री को भगवत्-आज्ञा का पालनकर स्वधाम (गोलोक) जाने की जल्दी थी। इसलिए चौथे व नवे स्कन्ध तक टीका को छोड़कर आपश्री ने दशम स्कन्ध की टीका आरंभ की दशम स्कन्ध में पूर्ण पुरूषोत्तत भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीला का वर्णन है। दशम स्कन्ध की टीका पूर्ण हो गई तथा ग्यारहवें स्कन्ध के चार अध्याय तक की टीका पूर्ण होने पर उन्हे फिर अनुभव हुआ कि प्रभु उन्हे शीघ्र स्वधाम में बुला रहे है। उन्होने तत्काल लेखन-कार्य बन्द कर दिया।महाप्रभुजी स्वयं आनन्दस्वरूप थे। उनमे भगवान् का परमानन्द बढ़ने लगा। अब वे चाहते थे कि उनके प्रभु-मिलन में कोई भी रूकावट नहीं रहे। उन्होने घर का त्यागकर भक्तिमार्गीय सन्यास लेने का निश्चय किया। सन्यास लेने के लिए धर्मपत्नी की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था। आपका यह विचार सुनकर जीवनसंगिनी महालक्ष्मीजी असमंजस में पड़ गई। वे सन्यास लेने की स्वीकृति नहीं दे पा रही थी। तभी ऐसा संयोग बना कि घर की यज्ञशाला में अचानक भारी आग लग गई। उस समय महाप्रभुजी यज्ञशाला में ही थे ।महालक्ष्मीजी ने घबरा कर कहा-बाहर निकलिए, बाहर निकलिए। महाप्रभुजी यज्ञशाला से निकलकर घर से बाहर आ गये। आपने महालक्ष्मीजी से कहा-'देवी! आपने कहा बाहर निकलिए। मै घर से बाहर निकल आया। इसे आपकी अनुमति मानकर सन्यास लेने जा रहा हूँ। अपने दोनों पुत्रों और परिवार को अपने प्रिय एवं सुयोग्य शिष्य दामोदरदास हरसानी के संरक्षण में सौपकर सन् १५८७ (ई. सन् १५३०) ज्येष्ठ कृष्ण १० को मध्यवेन्द्र यति से आपने भागवत् त्रिदण्ड सन्यास ग्रहण किया। महाप्रभुजी श्रेष्ठवक्ता थे, वे वाक्पति कहलाते थे। वे भगवान् के वदन (श्रीमुख) के अवतार साक्षात् अग्निस्वरूप थे, किन्तु सन्यास लेकर आपने अखंड मौन धारण कर लिया। सन्यासी वेश में वे एक सप्ताह बाद काशी के लिये चल दिये। गंगाजी के पवित्र तट पर हनुमानघाट पर पहुँचे। उस समय आपके दोनों पुत्र गोपीनाथजी (आयु १७ वर्ष) और विट्ठलनाथजी (आयु १५ वर्ष), दामोदरदास हरसानी आदि शिष्य वर्ग के साथ वहाँ गये और आपसे उपदेश देने की प्रार्थना की। आप मौन व्रत ले चुके थे, इसलिए आपने गंगाजी की रेती पर अपना अन्तिम उपदेश साढे़ तीन श्लोकों में लिख दिया। इस उपदेश को 'सार्धमय श्लोकी या शिक्षा श्लोक' कहा जाता है। शिक्षा श्लोक का अर्थ इस प्रकार है-''यदि तुम भगवान् को भुलाकर बहिर्मुख होगे अर्थात् भगवान् को भुलाकर संसार की ओर प्रवृति करोगे, तो तुम्हारे देह, चित्त आदि काल के प्रवाह के प्रभाव में आ जाएँगे और ये तुम्हे पूरी तरह से खा जाएँगे, तुम्हारा सर्वनाश कर देगे। मेरा यही निश्चित मत है। प्रभु कृष्ण लौकिक स्वामी नहीं है। वे लौकिक वस्तुओं और लौकिक भावों आदि को कोई महत्व नहीं देते, मानते नहीं है, अतः हमारे मन में यही सुदृढ होना चाहिए कि हमारे तो इस लोक और परलोक में सब कुछ, प्रभु श्रीकृष्ण ही है। वे ही हमारे सर्वस्व है। हमारे सर्वभाव से शरीर-मन-बुद्धि-आत्मा से, उन्ही गोपीश्वर श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए। उन्ही से इस लोक और परलोक में हमारा सब कुछ बनेगा।'' महाप्रभु की यह अन्तिम शिक्षा केवल अपने दोनों पुत्रों के लिए ही नही थी, अपितु सभी वैष्णवों के लिए, शिष्यों के लिए स्थायी उपदेश और चैतावनी थी। वंशजों और सेवकों (शिष्यों, वैष्णवों) के लिए यह स्पष्ट मार्गदर्शन एवं चैतावनी भरा दस्तावेज है। इसके बाद विक्रम संवत् १५८७ (ई. सन् १५३०) आषाढ़ शुक्ल ३ रविवार को मध्यान्ह के समय आपने श्रीमद्भागवत के गोपीगीत और युगलगीत का ज्ञान करते हुए प्रभु श्रीकृष्ण का ध्यान करते-करते गंगाजी में प्रवेश किया और अन्तर्धान हो गये। सभी के देखते-देखते वे ओझल हो गये। एक तेजपुंज गंगाजी के प्रवाह से निकला और अनन्त आकाश में जाकर विलीन हो गया। चम्पारण्य में जिस दिव्य भगवत्-वदन स्वरूप वैश्वानर का, अग्नि का अविर्भाव हुआ था, उसका पुनः अपने शाश्वत दिव्य परमधाम में प्रवेश हो गया। इस घटना को पुष्टिमार्ग में 'आसुरव्यामोहलीला' कहा जाता है, क्योकि आसुरी प्रवृति के लोगों की दृष्टि में महाप्रभुजी की देह गंगाजल में विलीन हो गयी थी, किन्तु आस्थावन् वैष्णवों के मन में यह अडिग विश्वास था कि उनके घरों में श्रीमहाप्रभुजी सदैव स्थित है, उनकी जीवन्त प्रतीति उन्हे सदैव होती है। आस्तिक मन मानों आज भी सूरदासजी के स्वर में स्वर मिलाकर दोहरा रह है- 'हृदय तें यह मदन मूरति छिन न इत उत जात।' श्रीवल्लभाचार्य युगद्रष्टा, युगसृष्टा दैवी महापुरूष थे। यद्यपि उनकी इस लोक की लीला का संवरण ५२ वर्षो में ही हो गया, किन्तु उनके उपदेश, उनका साहित्य, उनका जीवनदर्शन, उनका शुद्धाद्वैवत दर्शन का सिद्धान्त और उनका भावनात्मक पुष्टिमार्ग अभी भी लाखों लोगों को प्रकाश, प्रेरणा और संबल दे रहे है तथा अनन्तकाल तक देते रहेंगे। |